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न ते॑ व॒र्तास्ति॒ राध॑स॒ इन्द्र॑ दे॒वो न मर्त्य॑: । यद्दित्स॑सि स्तु॒तो म॒घम् ॥

English Transliteration

na te vartāsti rādhasa indra devo na martyaḥ | yad ditsasi stuto magham ||

Pad Path

न । ते॒ । व॒र्ता । अ॒स्ति॒ । राध॑सः । इन्द्र॑ । दे॒वः । न । मर्त्यः॑ । यत् । दित्स॑सि । स्तु॒तः । म॒घम् ॥ ८.१४.४

Rigveda » Mandal:8» Sukta:14» Mantra:4 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:14» Mantra:4 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:4


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SHIV SHANKAR SHARMA

ईश्वर की स्वतन्त्रता दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! तू (स्तुतः) विद्वानों से प्रार्थित होकर (यत्) जो (मघम्) पूजनीय धन मनुष्यों को (दित्ससि) देना चाहता है, (ते) तेरे उस (राधसः) पूज्य धन का दान से (वर्ता) निवारण करनेवाले (न) न तो (देवः) देव हैं और (न) न (मर्त्यः) मरणधर्मी मनुष्य हैं। तू सर्वथा स्वतन्त्र है, अतः हे भगवन् ! जिससे हम मनुष्यों को कल्याणतम हो, वह धन-जन दे ॥४॥
Connotation: - ईश्वर सब कुछ कर सकता है, इससे यह शिक्षा देते हैं। उसका बाधक या निवारक कोई पदार्थ नहीं है ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे योद्धा ! (ते, राधसः) आपके द्रव्य का (वर्ता) वारक (देवः, न, अस्ति) देव नहीं हो सकता (न, मर्त्यः) मर्त्य=साधारण मनुष्य नहीं हो सकता (यत्) जब आप (स्तुतः) नम्र पुरुष को (मघम्, दित्ससि) धन देना चाहते हैं ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि जो सम्राट् अपनी प्रजा को अन्न तथा धनादि अपेक्षित पदार्थों द्वारा सन्तुष्ट रखता है, उसके कार्य को राष्ट्रिय अल्प राजा तथा प्रजा कोई भी विघ्नित नहीं कर सकता किन्तु सहाय बनकर कार्य को सिद्ध करते हैं अर्थात् जो सम्राट् प्रजापालन तथा प्रजा के सुखोपयोगी कार्यों को सदैव सम्पादित करता रहता है, उसका राज्य निर्विघ्न चिरस्थायी रहता और विघ्न होने पर प्रजाजन उसके सब प्रकार से सहायक होते हैं ॥४॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्रस्य स्वातन्त्र्यं दर्शयति।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! त्वं स्तुतः=प्रार्थितः सन्। यन्मघं=महनीयं पूजनीयं धनं मनुष्येभ्यो दित्ससि=दातुमिच्छसि। ते=तव। तस्य राधसः=राधनीयस्य धनस्य। वर्ता=निवारयिता न देवो न मर्त्योऽस्ति ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे योद्धः ! (ते, राधसः) तव द्रव्यस्य (वर्ता) वारकः (देवः, न, अस्ति) देवः कश्चिन्नास्ति (न, मर्त्यः) मनुष्योऽपि नास्ति (यत्) यदा (स्तुतः) स्तोत्रे (मघम्, दित्ससि) धनं दित्ससि ॥४॥