Word-Meaning: - (शचीपते) हे शक्तिस्वामिन् योद्धा ! (यत्, अहम्) यदि मैं (गोपतिः, स्याम्) इन्द्रियों का स्वामी हो जाऊँ तो (अस्मै) इस (मनीषिणे) विद्वान् के लिये (दित्सेयम्) इष्ट पदार्थ देने की इच्छा करूँ और (शिक्षेयम्) दान भी करूँ। “शिक्ष धातु दानार्थक” है ॥२॥
Connotation: - प्रजापालक को उचित है कि वह अपनी इन्द्रियों को स्वाधीन करने का प्रयत्न पहिले ही से करे, जो इन्द्रियों की गति के अनुसार सर्वदा चलता है, उसका अधःपात शीघ्र ही होता है, फिर साम्राज्य प्राप्त करने के अनन्तर अपने राष्ट्रिय विद्वानों का अन्न-धनादि अपेक्षित द्रव्यों से सर्वदा सत्कार करता रहे, क्योंकि जिस देश में विद्वानों की पूजा होती है, उस देश की शक्तियें सदा बढ़कर अपने स्वामी को उन्नत करती हैं अर्थात् जिस राजा के राज्य में गुणी पुरुषों का सत्कार होता है, वह राज्य सदैव उन्नति को प्राप्त होता है ॥२॥