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अ॒यं दी॒र्घाय॒ चक्ष॑से॒ प्राचि॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे । मिमी॑ते य॒ज्ञमा॑नु॒षग्वि॒चक्ष्य॑ ॥

English Transliteration

ayaṁ dīrghāya cakṣase prāci prayaty adhvare | mimīte yajñam ānuṣag vicakṣya ||

Pad Path

अ॒यम् । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से । प्राचि॑ । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । मिमी॑ते । य॒ज्ञम् । आ॒नु॒षक् । वि॒ऽचक्ष्य॑ ॥ ८.१३.३०

Rigveda » Mandal:8» Sukta:13» Mantra:30 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:12» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:30


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SHIV SHANKAR SHARMA

इससे ईश्वर की स्तुति करते हैं।

Word-Meaning: - यज्ञ का भी कर्त्ता और विधाता वही ईश्वर है, यह इससे दिखलाते हैं। (प्राचि) अति प्रशंसनीय (अध्वरे) हिंसारहित यज्ञ को (प्रयति) प्रवृत्त होने पर (दीर्घाय+चक्षसे) बहुत प्रकाश की प्राप्ति के लिये (अयम्) यह परमात्मा स्वयं ही (विचक्ष्य) देख भालकर (आनुषक्) क्रमपूर्वक (यज्ञम्) यज्ञ को (मिमीते) पूर्ण करता है। अर्थात् उस ईश्वर की कृपा से ही भक्तों का यज्ञ विधिपूर्वक समाप्त होता है ॥३०॥
Connotation: - निखिल यज्ञों का विधायक भी वही है, अतः यज्ञों में वही पूज्यतम है ॥३०॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अयम्) यह परमात्मा (दीर्घाय, चक्षसे) दीर्घ कर्मफल के लिये (प्राचि, अध्वरे, प्रयति) अनादि ब्राह्मण्डरूप यज्ञ प्रवृत्त होने पर (विचक्ष्य) कर्म को देखकर (आनुषक्) प्रवाहरूप से (यज्ञम्, मिमीते) सृष्टि का निर्माण करता है ॥३०॥
Connotation: - वह अनादि परमात्मा जब सृष्टि का निर्माण करता है, तब प्रवाहरूप से अनादि कर्मों के अनुसार ही सृष्टि रचता है अर्थात् वेदविहित शुभकर्मोंवाले ऐश्वर्य्यसम्पन्न तथा सब कामनाओं से पूर्ण हुए सुख अनुभव करते हैं, इसी अवस्था का नाम “स्वर्ग” है और वेदविरुद्ध अशुभकर्म करनेवाले दरिद्र, आलसी, निरुद्यमी तथा प्रत्येक पदार्थ की इच्छावाले होते हैं, जिसका नाम “नरकपात” है। अतएव सब पुरुषों का कर्तव्य है कि वह सदा शुभकर्मों में प्रवृत्त रहें, ताकि परमात्मा के नियमानुसार स्वर्ग=सुखविशेष के भोगनेवाले हों ॥३०॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

ईश्वरस्तुतिं करोति ।

Word-Meaning: - प्राचि=प्रकर्षेण पूजिते। अध्वरे=हिंसारहिते यज्ञे। प्रयति=प्रवर्तमाने सति। दीर्घाय चक्षसे=दीर्घदर्शनाय। अयमिन्द्रः स्वयमेव। आनुषगनुषक्तयानुपूर्व्येण। विचक्ष्य=दृष्ट्वा। यज्ञं मिमीते=यज्ञनियमान् विदधाति ॥३०॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अयम्) अयं परमात्मा (दीर्घाय, चक्षसे) दीर्घाय कर्मफलाय (प्राचि, अध्वरे, प्रयति) अनादिब्रह्माण्डयज्ञे प्रवृत्ते (विचक्ष्य) कर्माणि दृष्ट्वा (आनुषक्) आनुपूर्व्येण (यज्ञम्, मिमीते) सृष्टिं निर्माति ॥३०॥