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तमिद्विप्रा॑ अव॒स्यव॑: प्र॒वत्व॑तीभिरू॒तिभि॑: । इन्द्रं॑ क्षो॒णीर॑वर्धयन्व॒या इ॑व ॥

English Transliteration

tam id viprā avasyavaḥ pravatvatībhir ūtibhiḥ | indraṁ kṣoṇīr avardhayan vayā iva ||

Pad Path

तम् । इत् । विप्राः॑ । अ॒व॒स्यवः॑ । प्र॒वत्व॑तीभिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । इन्द्र॑म् । क्षो॒णीः । अ॒व॒र्ध॒य॒न् । व॒याःऽइ॑व ॥ ८.१३.१७

Rigveda » Mandal:8» Sukta:13» Mantra:17 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:10» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:17


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SHIV SHANKAR SHARMA

उसकी महिमा दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (अवस्यवः) जगत् की रक्षा के इच्छुक और स्वयं साहाय्याकाङ्क्षी (विप्राः) मेधावी जन (तम्+इत्) उसी इन्द्र भगवान् की (प्रवत्वतीभिः) प्रवृत्तिमती अत्युन्नत (ऊतिभिः) स्तुतियों से स्तुति करते हैं और (क्षोणीः) पृथिवी आदि सर्वलोक-लोकान्तर (वयाः+इव) वृक्ष की शाखा के समान अधीन होकर (इन्द्रम्) इन्द्र के ही गुणों को (अवर्धयन्) बढ़ाते हैं ॥१७॥
Connotation: - हे मनुष्यों ! सर्व विद्वान् और अन्यान्य लोक उसी को गाते हैं, यह जान तुम भी उसी को गाओ ॥१७॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अवस्यवः, विप्राः) रक्षा चाहनेवाले विद्वान् जन (प्रवत्वतीभिः, ऊतिभिः) विस्तृत रक्षाओं द्वारा (तम्, इत्) उसी को बढ़ाते हैं (क्षोणीः) पृथिव्यादि लोक (वया इव) शाखाओं के समान (इन्द्रम्, अवर्धयन्) उसी परमात्मा को बढ़ा रहे हैं ॥१७॥
Connotation: - हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आपकी रक्षा से सुरक्षित हुए विद्वज्जन सर्वत्र आपकी महिमा को बढ़ा रहे हैं और यह सम्पूर्ण लोक-लोकान्तर आपकी ही महिमा का विस्तार कर रहे हैं अर्थात् आपकी इस अलौकिक रचना को देखकर विद्वान् पुरुष आपकी महिमा का कीर्तन करते हुए आपकी शरण को प्राप्त होकर सुख अनुभव करते हुए प्रजाजनों को आपकी ओर आकर्षित कर रहे हैं ॥१७॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

महिमानं दर्शयति।

Word-Meaning: - अवस्यवः=जगद्रक्षणेच्छवः=स्वयं च साहाय्यापेक्षिणः। विप्राः= मेधाविनो जनाः। तमित्=तमेवेन्द्रम्। प्रवत्वतीभिः= प्रवृत्तिमतीभिः=अत्युन्नताभिः। ऊतिभिः=स्तुतिभिः। स्तुवन्तीति शेषः। अपि च। क्षोणीः=क्षोण्यः पृथिव्यः। क्षोणीति पृथिवीनाम। तदुपलक्षिताः=सर्वे लोकाः। वया इव=वृक्षस्य शाखा इव तदधीनाः सन्तः। इन्द्रमवर्धयन्=वर्धयन्ति ॥१७॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अवस्यवः, विप्राः) रिरक्षिषवो विद्वांसः (प्रवत्वतीभिः, ऊतिभिः) प्रसृताभिः रक्षाभिः (तम्, इत्) तमेव वर्धयन्ति (क्षोणीः) पृथिव्यादयः (वया इव) शाखा इव (इन्द्रम्, अवर्धयन्) परमात्मानमेव वर्धयन्ति ॥१७॥