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इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे दे॒वासो॑ दधिरे पु॒रः । इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषता॒ समोज॑से ॥

English Transliteration

indraṁ vṛtrāya hantave devāso dadhire puraḥ | indraṁ vāṇīr anūṣatā sam ojase ||

Pad Path

इन्द्र॑म् । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । दे॒वासः॑ । द॒धि॒रे॒ । पु॒रः । इन्द्र॑म् । वाणीः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । सम् । ओज॑से ॥ ८.१२.२२

Rigveda » Mandal:8» Sukta:12» Mantra:22 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:5» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:22


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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्र ही स्तवनीय है, यह लिखते हैं।

Word-Meaning: - (देवासः) मनःसहित इन्द्रिय अथवा विद्वद्गण (वृत्राय) अज्ञानादि दुरितों के (हन्तवे) निवारण के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र को ही (पुरः) आगे रखते हैं (वाणीः) पुनः विद्वानों की वाणी=वचन भी (सम्+ओजसे) सम्यक् प्रकार बलप्राप्ति के लिये। (इन्द्रम्+अनूषत) इन्द्र की ही स्तुति करते हैं। यह ईश्वर का माहात्म्य है कि सब कोई, क्या जड़ क्या चेतन, इसी के गुण प्रकट कर रहे हैं ॥२२॥
Connotation: - हे मनुष्यों ! निखिल दुरितनिवारणार्थ उसी की शरण में आइये ॥२२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रम्) परमात्मा को (वृत्राय, हन्तवे) अज्ञान-नाश करने के लिये (देवासः) विद्वान् (पूरः) सबसे प्रथम दधिरे ध्यान द्वारा धारण करते हैं (इन्द्रम्) परमात्मा को (वाणीः) वेदवाणियें (ओजसे) पराक्रम प्राप्त करने के लिये (समनूषत) सम्यक् स्तुति करती हैं ॥२२॥
Connotation: - अज्ञाननाशक तथा ज्ञान के प्रकाशक परमात्मा को विद्वान् पुरुष ध्यानद्वारा धारण करते हैं अर्थात् विद्वान् पुरुष समाधिस्ध होकर परमात्मा के समीपस्थ हुए ज्ञान को सम्पादन करते हैं, जिससे मुक्त होकर सुख अनुभव करते हैं, अतएव जिज्ञासु जनों का कर्तव्य है कि वह आत्मिक बल सम्पादन करके ज्ञान की वृद्धि द्वारा परमात्मा के समीपस्थ होने के लिये यत्नवान् हों ॥२२॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्र एव स्तवनीयः।

Word-Meaning: - देवासः=देवा मनःसहितानीन्द्रियाणि विद्वांसो वा। वृत्राय=वृत्रमावरकमज्ञानादिकम्। हन्तवे=हन्तुम्। इन्द्रमेव। पुरोऽग्रे। दधिरे=दधति अज्ञाननिवृत्त्यै तमेव सर्वाणीन्द्रियाणि प्रार्थयन्ति। स्वस्य तत्सामर्थ्याभावात्। पुनः। वाणीः=विदुषां वाण्यो वाचोऽपि। इन्द्रमेव। अनूषत=स्तुवन्ति। किमर्थम्। सम्=समीचीनाय। ओजसे=बलाय बलं प्राप्तुमित्यर्थः ॥२२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रम्) परमात्मानम् (वृत्राय, हन्तवे) अज्ञाननाशाय (देवासः) देवा विद्वांसः (पुरः) अग्रे (दधिरे) धारयन्ति (इन्द्रम्) परमात्मानम् (वाणीः) वेदवाचः (ओजसे) ओजःप्राप्तये (समनूषत) संस्तुवन्ति ॥२२॥