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म॒हे च॒न त्वाम॑द्रिव॒: परा॑ शु॒ल्काय॑ देयाम् । न स॒हस्रा॑य॒ नायुता॑य वज्रिवो॒ न श॒ताय॑ शतामघ ॥

English Transliteration

mahe cana tvām adrivaḥ parā śulkāya deyām | na sahasrāya nāyutāya vajrivo na śatāya śatāmagha ||

Pad Path

म॒हे । च॒न । त्वाम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । परा॑ । शु॒ल्काय॑ । दे॒या॒म् । न । स॒हस्रा॑य । न । अ॒युता॑य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । न । श॒ताय॑ । श॒त॒ऽम॒घ॒ ॥ ८.१.५

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:10» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:5


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SHIV SHANKAR SHARMA

सर्व भाव से ईश्वर ही पूजनीय है, यह इससे दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (अद्रिवः) हे दण्डधारिन् ! (वज्रिवः) हे वज्रयुक्त महादण्डधारिन् ! (शतामघ) हे अपरिमितधन ! इन्द्र ! (त्वाम्) तुझको (महे+च) बहुत (शुल्काय) धन के लिये मैं (न) न (परा+देयाम्) त्याग दूं या न बेचूँ। (सहस्राय) सहस्र धन के लिये तुझको (न) न त्याग करूँ। (अयुताय) अयुत धन के लिये तुझको (न) नहीं त्यागूँ और (न+शताय) न अपरिमित धन के लिये तुझको त्यागूँ या बेचूँ ॥५॥*
Connotation: - महाप्रलोभ से या भय से या फल को न देखने से परमात्मा त्याज्य नहीं। किन्तु हे मनुष्यो ! अफलाकाङ्क्षी होकर महेश्वर की सेवा करो और उसकी आज्ञापालन से ही उसको प्रसन्न करो ॥५॥
Footnote: * इस प्रकार का भाव अन्यत्र भी पाया जाता है। यथा−क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः। यदा वृत्राणि जङ्घनदथैनं मे पुनर्ददत् ॥ ऋ० ४।२४।१० ॥ (मम इमम् इन्द्रम्) मेरे इस इन्द्र को (दशभिः) दश पाँच (धेनुभिः) गौवों से या स्तुतिवचनों से (कः+क्रीणाति) कौन खरीदता है। यदि कोई खरीदता ही है तो (यदा) जब वह इन्द्र (वृत्राणि) उसके निखिल विघ्नों का (जङ्घनत्) हनन कर देवे। (अथ) तब (पुनः+एनम्) पुनः इस इन्द्र को (मे+ददत्) मेरे अधीन कर दे। वेदों में मनुष्य के नाना संकल्पों का विवरण पाया जाता है। जब भक्तजन को स्तुति प्रार्थना से शीघ्र फल प्राप्त नहीं होता, तो उसके मुख से अनायास यह निकलता है कि हे परमात्मन् ! आप कहाँ चले गए। आप तो सबकी रक्षा करते हैं। मेरी वारी में आप कहाँ छिप गए। आपको किसने धर रक्खा है। इत्यादि। इसी प्रकार का आशय इन ऋचाओं से भी है ॥५॥
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ARYAMUNI

अब ब्रह्मानन्द को सर्वोपरि कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (अद्रिवः) हे दारुण शक्तिवाले परमेश्वर ! मैं (त्वां) आपको (महे) बहुत से (शुल्काय, च) शुल्क के निमित्त भी (न, परा, देयां) नहीं छोड़ सकता (सहस्राय) सहस्रसंख्यक शुल्क=मूल्य के निमित्त भी (न) नहीं छोड़ सकता (अयुताय) दश सहस्र के निमित्त भी (न) नहीं छोड़ सकता (शतमघ) हे अनेकविध सम्पत्तिशालिन् ! (वज्रिवः) विद्युदादिशक्त्युत्पादक ! (शताय) अपरिमित धन के निमित्त भी (न) नहीं छोड़ सकता ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में ब्रह्मानन्द को सर्वोपरि वर्णन किया है अर्थात् ब्रह्मानन्द की तुलना धनधामादिक किसी सांसारिक पदार्थ से नहीं हो सकती और मनुष्य, गन्धर्व, देव तथा पितृ आदि जो उच्च से उच्च पद हैं, उनमें भी उस आनन्द का अवभास नहीं होता, जिसको ब्रह्मानन्द कहते हैं। इसी अभिप्राय से मन्त्र में सब प्रकार की अनर्घ वस्तुओं को ब्रह्मानन्द की अपेक्षा तुच्छ माना है। मन्त्र में “शत” शब्द अयुत संख्या के ऊपर आने से अगण्य संख्यावाची है, जिसका अर्थ यह है कि असंख्यात धन से भी ब्रह्मानन्द की तुलना नहीं हो सकती ॥५॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

सर्वभावेनेश्वर एव भावनीय इति दर्शयति।

Word-Meaning: - हे अद्रिवः=दण्डधारिन्। हे वज्रिवः=हे वज्रयुक्त, हे महादण्डधारिन् ! हे शतामघ=हे अपरिमितधन ! चनेति निपातद्वयसमुदायो विभज्य योजनीयः। महे च=महतेऽपि। शुल्काय=धनाय। त्वाम्। न परादेयां=न पराददानि नाहं त्यजानि न विक्रीणानि वा। सहस्राय=सहस्रसंख्याय धनाय च त्वां न परादेयाम्। अयुताय=अयुतसंख्याधनाय च न त्वां परादेयाम्। तथा न शताय। शत शब्दो बहुवाची अपरिमिताय च धनाय न त्वां परादेयाम्। यतस्त्वं सर्वेभ्यः प्रियतमोऽसि अतस्त्वां न कदापि कस्यामप्यवस्थायां त्यजानीति मतिर्देया ॥५॥
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ARYAMUNI

अथ ब्रह्मानन्दोत्कर्षो निरूप्यते।

Word-Meaning: - (अद्रिवः) हे दारणशक्तिमन् ! (त्वां) भवन्तं (महे) महते (शुल्काय, च) मूल्याय च (न, परा, देयां) न परित्यजानि (सहस्राय) सहस्रसंख्याकाय च (न) न परित्यजानि (अयुताय) दशसहस्राय च (न) न परित्यजानि (शतामघ) हे शतशो धनवन् ! (शताय) अपरिमितधनाय च (वज्रिवः) विद्युच्छक्त्युत्पादक ! (न) न त्यजानि ॥५॥