अब परमात्मा निष्पाप होने का प्रकार कथन करते हैं।
Word-Meaning: - (यः) जो परमात्मा (आगः, चक्रुषे) अपराध करते हुए को (चित्) भी (मृळयाति) अपनी दया से क्षमा कर देता है, उस (वरुणे) वरुणरूप परमात्मा के समक्ष (वयं) हम (अनागाः) निरपराध (स्याम) हों, (अदितेः) उस अखण्डनीय परमात्मा के (व्रतानि) नियमों को (अनु, ऋधन्तः) निरन्तर पालन करते हुए प्रार्थना करें कि हे परमात्मन् ! (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) मङ्गलवाणियों से (सदा) सदैव (नः) हमारी (पात) रक्षा करें ॥७॥
Connotation: - इस मन्त्र में जो यह वर्णन किया है कि वह अपराध करते हुए को अपनी दया से क्षमा कर देता है, इसका आशय यह है कि वह अपने सम्बन्ध में हुए पापों को क्षमा कर देता है, परन्तु जिन पापों का प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, उनको कदापि क्षमा नहीं करता। जैसे कोई प्रमादवश किसी दिन सन्ध्या न करे, तो प्रार्थना करने पर उस पाप को क्षमा कर सकता है, परन्तु चोरी अथवा असत्य भाषणादि पापों को वह कदापि क्षमा नहीं करता, उनका दण्ड अवश्य देता है। यद्यपि परमात्मा में इतनी उदारता है कि वह अपराधों को क्षमा भी कर सकता है, परन्तु हमको उसके समक्ष सदैव निरपराध होकर जाना चाहिये। जब हम उस परमात्मा के नियमों का पालन करते हुए उससे क्षमा की प्रार्थना करते हैं, तभी वह हमारे ऊपर दया कर सकता है, अन्यथा नहीं ॥ इस मन्त्र में परमात्मा की आज्ञारूप व्रतों के पालन करने का सर्वोपरि उपदेश पाया जाता है, जैसा कि “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि०॥” यजु० १।५॥ इत्यादि मन्त्रों में व्रतपालन की प्रार्थना की गई है। जो पुरुष व्रतपालन नहीं कर सकता, उससे संसार में कुछ भी नहीं होता, उसका जीवन निष्फल जाता है, इसलिये ईश्वरीय नियमों का पालन करना प्रत्येक मनुष्य के लिये अवश्य कर्त्तव्य है ॥७॥ यह ८७वाँ सूक्त और नवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥