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किमाग॑ आस वरुण॒ ज्येष्ठं॒ यत्स्तो॒तारं॒ जिघां॑ससि॒ सखा॑यम् । प्र तन्मे॑ वोचो दूळभ स्वधा॒वोऽव॑ त्वाने॒ना नम॑सा तु॒र इ॑याम् ॥

English Transliteration

kim āga āsa varuṇa jyeṣṭhaṁ yat stotāraṁ jighāṁsasi sakhāyam | pra tan me voco dūḻabha svadhāvo va tvānenā namasā tura iyām ||

Pad Path

किम् । आगः॑ । आ॒स॒ । व॒रु॒ण॒ । ज्येष्ठ॑म् । यत् । स्तो॒तार॑म् । जिघां॑ससि । सखा॑यम् । प्र । तत् । मे॒ । वो॒चः॒ । दुः॒ऽद॒भ॒ । स्व॒धा॒ऽवः॒ । अव॑ । त्वा॒ । अ॒ने॒नाः । नम॑सा । तु॒रः । इ॒या॒म् ॥ ७.८६.४

Rigveda » Mandal:7» Sukta:86» Mantra:4 | Ashtak:5» Adhyay:6» Varga:8» Mantra:4 | Mandal:7» Anuvak:5» Mantra:4


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (वरुण) हे मङ्गलमय परमात्मन् ! वह (किं) क्या (ज्येष्ठं) बड़े (आगः) पाप (आस) हैं, (यत्) जिनके कारण (सखायं) मित्ररूप आप (स्तोतारं) उपासकों को (जिघांससि) हनन करना चाहते हैं, (तत्) उनको (प्र) विशेषरूप से (मे) मेरे प्रति (वोचः) कथन करें। (दूळभ) हे सर्वोपरि अजेय परमात्मन् ! (त्वा) आप (स्वधावः) ऐश्वर्य्यसम्पन्न हैं, इसलिए (अनेनाः) ऐसे पापों से (अव) रक्षा करें, ताकि मैं (नमसा) नम्रतापूर्वक (तुरः) शीघ्र ही (इयां) आपको प्राप्त होऊँ ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपासक अपने पापों के मार्जननिमित्त परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे महाराज ! वह मैंने कौन बड़े पाप किये हैं, जिनके कारण मैं आपको प्राप्त नहीं हो सकता अथवा आपकी प्राप्ति में विघ्नकारी है। हे मित्ररूप परमेश्वर ! आप मेरा हनन न करते हुए अपनी कृपा द्वारा उन पापों से मुझे निर्मुक्त करें, ताकि मैं शीघ्र ही आपको प्राप्त होऊँ ॥ तात्पर्य्य यह है कि पुरुष जब तक अपने दुर्गुणों को आप अनुभव नहीं करता, तब तक वह अपना सुधार नहीं कर सकता। मनुष्य का सुधार तभी होता है, जब वह अपने आपको आत्मिक उन्नति में निर्बल पाता है। परमात्मा आज्ञा देते हैं कि जिज्ञासु जनों ! तुम अघमर्षणादि मन्त्रों के पाठ द्वारा अपने आपको पवित्र बनाकर मेरे समीप आओ, तुम्हें आनन्द प्राप्त होगा ॥५॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (वरुण) हे मङ्गलस्वरूप परमात्मन् ! तत् (किम्) किं (ज्येष्ठम्) महत् (आगः) पापम्=अपराधः (आस) बभूव मया (यत्) येन हेतुना (सखायम्) मित्रभूतं (स्तोतारम्) स्वोपासकं (जिघांससि) हन्तुमिच्छसि (तत्) तत्पापं (प्र) विशेषेण (मे) मां प्रति (वोचः) ब्रूयाः (दूळभ) हे जेतुमशक्य ! (त्वा) त्वं (स्वधावः) सुतेजोमयोऽसि, अतः (अनेनाः) मां निष्पापं विधाय (अव) रक्ष, यतोऽहं (नमसा) नम्रतया (तुरः) सत्वरं (इयाम्) त्वां प्राप्नुयाम् ॥४॥