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अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्न उ॒षासो॑ वी॒रव॑ती॒: सद॑मुच्छन्तु भ॒द्राः । घृ॒तं दुहा॑ना वि॒श्वत॒: प्रपी॑ता यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

English Transliteration

aśvāvatīr gomatīr na uṣāso vīravatīḥ sadam ucchantu bhadrāḥ | ghṛtaṁ duhānā viśvataḥ prapītā yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

Pad Path

अश्व॑ऽवतीः । गोऽम॑तीः । नः॒ । उ॒षसः॑ । वी॒रऽव॑तीः । सद॑म् । उ॒च्छ॒न्तु॒ । भ॒द्राः । घृ॒तम् । दुहा॑नाः । वि॒श्वतः॑ । प्रऽपी॑ताः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.८०.३

Rigveda » Mandal:7» Sukta:80» Mantra:3 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:27» Mantra:3 | Mandal:7» Anuvak:5» Mantra:3


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ARYAMUNI

अब इस सूक्त के अन्त में परमात्मा के दिव्य गुणों का वर्णन करते हुए उससे स्वस्ति की प्रार्थना करते हैं।

Word-Meaning: - हे परमात्मन् ! आप (अश्वावतीः) सर्वगतियों का आश्रय (गोमतीः) सब ज्ञानों का आधार (वीरवतीः) सब वीरतादि गुणों का आश्रय हो, (नः) हमको (उषसः) प्रकाशवाले (भद्राः) भद्र गुण (सदं) सदा के लिए (उच्छन्तु) प्राप्त करायें, आप (विश्वतः) सब ओर से (घृतं) प्रेम को (दुहानाः) उत्पन्न करनेवाले (प्रपीताः) सबके आश्रयभूत हैं, (यूयम्) आप (नः) हमको (स्वस्तिभिः) कल्याणवाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥३॥
Connotation: - इस मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करते हुए यह कथन किया है कि जिस प्रकार वर्तिका=बत्ती सब ओर से स्नेह=चिकनाई को अपने में लीन करके प्रकाश करती है, इसी प्रकार सब प्रेमी पुरुषों को परमात्मा प्रकाश=ज्ञान प्रदान करते हैं। वही परमात्मा वीरता, धीरता, ज्ञान तथा गति आदि सब सद्गुणों का आधार और प्रेममय पुरुषों का एकमात्र गतिस्थान है ॥ उसी परमात्मा की दिव्य शक्ति से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता, उसी की सत्ता का लाभकर स्थित रहता और अन्त में उसी में लय हो जाता है, इसी कारण उस शक्ति को इस मन्त्र में “प्रपीता” सबका आश्रयभूत कहा गया है और इसी भाव को महर्षि व्यास ने “स्वाप्ययात्” ॥१।१।९। ब्र०  सू० ॥ में यह वर्णन किया है कि कोई पदार्थ नाश को प्राप्त नहीं होता, किन्तु सबका लय एकमात्र परमात्मा में होता है अर्थात् प्रथम प्रकृतिरूप कारण में सब पदार्थों का लय हो जाता और कारण प्रकृतिरूप में ब्रह्म में सदा विद्यमान रहता है, इसी प्रकार दूसरी जीवरूप प्रकृति भी जो अनादिकाल से विद्यमान है, वह भी प्रलयकाल में ब्रह्माश्रित रहती हैं। इस प्रकार चिदचिदीश्वर=चित् जीव अचित् प्रकृति और ब्रह्म, ये तीनों अनादि अनन्त हैं, यही वैदिक सिद्धान्त है, जिसका विशेष वर्णन उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्रादि ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक लिखा गया है ॥३॥ ऋग्वेद के ७वें मण्डल में ८०वाँ सूक्त और २७वाँ वर्ग समाप्त हुआ और पाँचवें अष्टक में पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

अथ परमात्मनः सकाशात्सुखं प्रार्थ्यते।

Word-Meaning: - हे परमात्मन् ! भवान् (अश्वावतीः) सर्वगतीनामाश्रयः (गोमतीः)   सर्वज्ञानानामाधारः (वीरवतीः) सर्वेषां शौर्यादिगुणानाञ्च आश्रयोऽस्ति, (नः) अस्मान् (उषसः) प्रकाशमानान् (भद्राः) श्रेयस्करगुणान् (सदम्) सर्वदा (उच्छन्तु) प्रापयतु, भवान् (विश्वतः) सर्वतः (घृतम्) हार्दम् (दुहानाः) उत्पादयन् (प्रपीताः) जगदाश्रयोऽस्ति (यूयम्) भवान् (नः) अस्मान् (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (सदा) निरन्तरं (पात) रक्षतु=पुनातु ॥३॥ इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिबद्धे ऋक्संहिताभाष्ये सप्तममण्डले पञ्चमाष्टके पञ्चमोऽध्यायोऽशीतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥