अब वेदवेत्ता ऋषियों द्वारा प्रार्थना कथन करते हैं।
Word-Meaning: - (दिवः दुहितः) द्युलोक की दुहिता (उषः) उषा के (वर्धयन्ति) उदय होने पर अथवा बढ़ने पर (मतिभिः वसिष्ठाः) बुद्धिमान् ऋषि लोग (सुजाते) सुजन्मवाली उषा को लक्ष्य रखकर भले प्रकार परमात्मा को ज्ञानगोचर करके (यां त्वा) जिस आपका ध्यान करते हैं, (सा) वह आप (अस्मासु) हम लोगों को (ऋष्वं) ऐश्वर्य्ययुक्त करें, (बृहन्तं रयिं) सब से बड़े धन को (धाः) धारण करावें और (नः) हमको (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) कल्याणयुक्त वाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥६॥
Connotation: - हे परमात्मा ! उषःकाल में विज्ञानी ऋषि महात्मा अपनी ब्रह्मविषयणी बुद्धि द्वारा आपको ज्ञानगोचर करते हुए आपका ध्यान करते हैं, वह आप हमारे पूजनीय पिता हमें धनसम्पन्न तथा ऐश्वर्य्ययुक्त करते हुए सब प्रकार से हमारा कल्याण करें ॥ तात्पर्य यह है कि मन्त्रों द्वारा संस्कृत की हुई बुद्धि द्वारा जब ऋषि महात्मा परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब उसका साक्षात्कार करके उसी को अपना एकमात्र लक्ष्य बनाते हैं, जैसा कि “दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः”=इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में वर्णन किया है कि परमात्मा का दर्शन=साक्षात्कार सूक्ष्मबुद्धि द्वारा सूक्ष्मदर्शी ऋषियों को होता है। अधिक क्या, परमात्मा का ध्यान करने के लिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन ये तीन मुख्य साधन हैं अर्थात् प्रथम वेदमन्त्रों द्वारा परमात्मा का श्रवण करना, पुनः श्रवण किये हुए परमात्मस्वरूप का युक्तियों द्वारा मनन करना और तीसरे साधन से उसके स्वरूप का निदिध्यासन=ध्यान करना, इसी का नाम ब्रह्मोपासना है। जब पुरुष इस उपासना के तृतीय स्थान तक पहुँच जाता है, तब उसको ध्यान करने में कठिनता नहीं होती ॥ और जो कई एक लोग यह कहते हैं कि निराकार पदार्थ ध्यानगोचर नहीं हो सकता, उनसे यह प्रष्टव्य है कि अपना स्वरूप भी तो निराकार है, वह ध्यान में कैसे आ जाता है और सुख-दुःख भी तो निराकार है, उनका अनुभव क्यों होता है ? जिस प्रकार जीव का स्वरूप और सुखादिकों का अनुभव होता है, इसी प्रकार परमात्मा के निराकार स्वरूप का अनुभव होने में कोई बाधा नहीं ॥ निराकार परमात्मस्वरूप के अनुभव करने का प्रकार यह है कि पुरुष जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ तथा ध्यान द्वारा मन को स्थिर करके तदनन्तर उस आनन्दस्वरूप निराकार परमात्मा के स्वरूप में लगावे, तब वह स्थिरता को प्राप्त हुआ मन परमात्मा के स्वरूप को इस प्रकार अनुभव करता है, जिस प्रकार जीवात्मा अपने निराकार आनन्द को अनुभव कर लेता है और जैसे आनन्द के अनुभव करने में उसको कोई सन्देह शेष नहीं रहता, इसी प्रकार स्थिर मनवाले पुरुष को आनन्दस्वरूप परमात्मा के अनुभव करने में कोई शङ्का नहीं रहती, क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक है, उसके स्वरूप का आनन्द उसी प्रकार उसके जीवात्मा में व्यापक है, जैसा कि जीव का स्वरूपभूत आनन्द उसका है, सो जिस प्रकार जीवात्मा अपने स्वरूपभूत आनन्द को अनुभव करता है, इसी प्रकार अत्यन्त सन्निहित होने से परमात्मा का निराकार स्वरूप जीव के अनुभव का विषय होता है। इसका विशेष विवरण दशम मण्डल के ईश्वरस्वरूप- निरूपण में प्रतिपादन करेगें, विशेषाभिलाषी वहाँ देखें ॥६॥ यह ७७वाँ सूक्त और २४वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥