Go To Mantra

म॒हे नो॑ अ॒द्य सु॑वि॒ताय॑ बो॒ध्युषो॑ म॒हे सौभ॑गाय॒ प्र य॑न्धि । चि॒त्रं र॒यिं य॒शसं॑ धेह्य॒स्मे देवि॒ मर्ते॑षु मानुषि श्रव॒स्युम् ॥

English Transliteration

mahe no adya suvitāya bodhy uṣo mahe saubhagāya pra yandhi | citraṁ rayiṁ yaśasaṁ dhehy asme devi marteṣu mānuṣi śravasyum ||

Pad Path

म॒हे । नः॒ । अ॒द्य । सु॒वि॒ताय॑ । बो॒धि॒ । उषः॑ । म॒हे । सौभ॑गाय । प्र । य॒न्धि॒ । चि॒त्रम् । र॒यिम् । य॒शस॑म् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ । देवि॑ । मर्ते॑षु । मा॒नु॒षि॒ । श्र॒व॒स्युम् ॥ ७.७५.२

Rigveda » Mandal:7» Sukta:75» Mantra:2 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:22» Mantra:2 | Mandal:7» Anuvak:5» Mantra:2


Reads times

ARYAMUNI

अब परमात्मा उषःकाल में सौभाग्यप्राप्ति तथा धनप्राप्ति के लिए प्रार्थना करने का उपदेश करते हैं।

Word-Meaning: - (उषः) ब्रह्ममुहूर्त्त में (बोधि) उठकर (सुविताय) अपने सुख के लिए प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! (महे) आप अपनी महत्ता से (अद्य) आज=सम्प्रति (नः) हमको (महे सौभगाय) बड़े सौभाग्य के लिए (प्रयन्धि) प्राप्त होकर (चित्रं रयिं यशसं धेहि) नाना प्रकार का धन और यश दें, (देवि) हे दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (मर्तेषु) इस मनुष्यलोक में (अस्मे) हमें (मानुषि) मनुष्यों के कर्मों में प्रवृत्त करें और हम (श्रवस्युं) पुत्र-पौत्रादि परिवार से युक्त हों ॥२॥
Connotation: - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम प्रातःकाल में उठकर अपने सौभाग्य के लिए प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! इस मनुष्यलोक में आप हमें नाना प्रकार का धन, यश, बल, तेज प्रदान करें, हमें पुत्र-पौत्रादि परिवार दें और हमको अपनी महत्ता से उच्च कर्मोंवाला बनायें ॥ तात्पर्य्य यह कि जो पुरुष प्रातःकाल में शुद्ध हृदय द्वारा परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं, वे अवश्य ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर सांसारिक सुख भोगते और अन्ततः मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥२॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (उषः) ब्राह्मे मुहुर्ते (बोधि) उत्थाय (सुविताय) अस्मै सुखाय प्रार्थय, हे परमात्मन् ! (महे) भवान् स्वमहत्तया (अद्य) अस्मिन् वर्तमाने दिने (नः) अस्मभ्यं (महे सौभगाय) महते सौभाग्याय (प्रयन्धि) प्राप्य (चित्रं रयिं यशसं धेहि) नानाविधानि धनानि यशश्च प्रयच्छतु (देवि) हे दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (मर्त्तेषु) अस्मिन् मनुष्यलोके (अस्मे) अस्मान् (मानुषि) मनुष्याणां कर्मसु प्रवर्तयतु तथा चाहं (श्रवस्युम्) पुत्रपौत्रादिपरिजनेन युक्तो भवेयम् ॥२॥