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आ वां॒ रथो॒ रोद॑सी बद्बधा॒नो हि॑र॒ण्ययो॒ वृष॑भिर्या॒त्वश्वै॑: । घृ॒तव॑र्तनिः प॒विभी॑ रुचा॒न इ॒षां वो॒ळ्हा नृ॒पति॑र्वा॒जिनी॑वान् ॥

English Transliteration

ā vāṁ ratho rodasī badbadhāno hiraṇyayo vṛṣabhir yātv aśvaiḥ | ghṛtavartaniḥ pavibhī rucāna iṣāṁ voḻhā nṛpatir vājinīvān ||

Pad Path

आ । वा॒म् । रथः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ब॒द्ब॒धा॒नः । हि॒र॒ण्ययः॑ । वृष॑ऽभिः । या॒तु॒ । अश्वैः॑ । घृ॒तऽव॑र्तनिः । प॒विऽभिः॑ । रु॒चा॒नः । इ॒षाम् । वो॒ळ्हा । नृ॒ऽपतिः॑ । वा॒जिनी॑ऽवान् ॥ ७.६९.१

Rigveda » Mandal:7» Sukta:69» Mantra:1 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:16» Mantra:1 | Mandal:7» Anuvak:4» Mantra:1


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ARYAMUNI

अब इस सूक्त में परमात्मा रथ के रूपकालङ्कार द्वारा राजपुरुषों को सन्मार्ग का उपदेश करते हैं।

Word-Meaning: - हे राजपुरुषो ! (वां, रथः) तुम्हारा रथ (हिरण्ययः) जो ज्योति= प्रकाशवाला (वृषभिः, अश्वैः) बलवान् घोड़ोंवाला (घृतवर्तनिः) स्नेह की बत्ती से प्रकाशित (पविभिः, रुचानः) दृढ़ अस्थियों से बना हुआ (इषां, वोळ्हा, वाजिनीवान्) और जो सब प्रकार का ऐश्वर्य्य तथा बलों का देनेवाला है, उसमें तुम्हारा बैठा हुआ (नृपतिः) आत्मारूप राजा (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक में अव्याहतगति होकर (आ, बद्बधानः) सब ओर से भली-भाँति विजय करता हुआ (यातु) गमन करे ॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र में रथ के रूपकालङ्कार से परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारा शरीररूपी रथ, जिसमें इन्द्रियरूप बलवान् घोड़े जुते हुए हैं, जो दृढ़ अस्थियों से बना हुआ है, जिसमें वीर्यरूप स्नेह से बनी हुई वर्तिका=बत्ती जल रही है, जो सब प्रकार के ऐश्वर्य्य तथा बलों का बढ़ानेवाला है, उसमें स्थित आत्मारूप राजा अव्याहतगति= बिना रोक-टोक सर्वत्र गमनशील हो अर्थात् तुम लोग पृथिवी और द्युलोक के मध्य में सर्वत्र गमन करो, यह हमारा तुम्हारे लिए आदेश है ॥१॥
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ARYAMUNI

अथात्र सूक्ते परमात्मा रथस्य रूपकालङ्कारेण राजपुरुषेभ्यः सन्मार्गमुपदिशति।

Word-Meaning: - हे राजकीयाः पुरुषाः ! (वाम्) युष्माकं (रथः) रथः (हिरण्ययः) प्रकाशमयः (वृषभिः, अश्वैः) बलिभिः तुरङ्गमैर्युक्तः (घृतवर्तनिः) स्नेहवर्त्या दीप्तः (पविभिः, रुचानः) वज्रमयैः पदार्थै रोचमानः (इषाम्) ऐश्वर्य्याणां (वोळ्हा) प्रापकोऽस्ति तत्र रथे (वाजिनीवान्) स्थितिमान् (नृपतिः) आत्मरूपो राजा (रोदसी) द्यावापृथिव्योः अव्याहतगतिः सन् (आ) सर्वतः (बद्बधानः) विजयं कुर्वन् (यातु) गमनशीलो भवतु ॥१॥