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शी॒र्ष्णःशी॑र्ष्णो॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ स॒मया॒ विश्व॒मा रज॑: । स॒प्त स्वसा॑रः सुवि॒ताय॒ सूर्यं॒ वह॑न्ति ह॒रितो॒ रथे॑ ॥

English Transliteration

śīrṣṇaḥ-śīrṣṇo jagatas tasthuṣas patiṁ samayā viśvam ā rajaḥ | sapta svasāraḥ suvitāya sūryaṁ vahanti harito rathe ||

Pad Path

शी॒र्ष्णःऽशी॑र्ष्णः । जग॑तः । त॒स्थुषः॑ । पति॑म् । स॒मया॑ । विश्व॑म् । आ । रजः॑ । स॒प्त । स्वसा॑रः । सु॒वि॒ताय॑ । सूर्य॑म् । वह॑न्ति । ह॒रितः॑ । रथे॑ ॥ ७.६६.१५

Rigveda » Mandal:7» Sukta:66» Mantra:15 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:10» Mantra:5 | Mandal:7» Anuvak:4» Mantra:15


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ARYAMUNI

अब परमात्मप्राप्ति के लिये और साधन कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (रथे) योगीजनों के मार्ग में विचरनेवाली (हरितः) अन्त:करण की वृत्तियें (सूर्यं) उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा को (वहन्ति) प्राप्त कराती हैं, जो (सुविताय) इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करके (जगतः, तस्थुषः, पतिं) जङ्गम तथा स्थावर का पति है (आ) और जो (रजः, विश्वं) परमाणुओं से लेकर सम्पूर्ण संसार को (समया) अनादि काल से रचता है। उसकी प्राप्ति का हेतु (शीर्ष्णः, शीर्ष्णः) प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में (स्वसारः, सप्त) निरन्तर स्वयं चलनेवाली सप्त इन्द्रियों की वृत्तियें हैं ॥१५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उस परमात्मा की प्राप्ति का उपाय कथन किया है, जो स्थावर तथा जङ्गमरूप इस ब्रह्माण्ड का एकमात्र पति है। उसी परमात्मदेव को यहाँ “सूर्य्य” कथन किया गया है, जो उस भौतिक सूर्य्य का वाचक नहीं, किन्तु उस स्वत:प्रकाश परमात्मा का बोधक है। जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करनेवाला है, उसकी प्राप्ति का साधन मस्तिष्क में सप्त इन्द्रियों की वृत्तियाँ हैं अर्थात् दो आँख, दो कान, दो नासिका के छिद्र और एक मुख, इस प्रकार ये सप्त इन्द्रियों की वृत्तियें हैं। “स्वयं सरन्तीति स्वसार:”=जो स्वयं गमन करें, उनको “स्वसा” कहते हैं। जब ये वृत्तियें सदसद्विवेचन करनेवाली हो जाती हैं, तब उस ज्ञानगम्य परमात्मा की प्राप्ति होती है। अथवा पाँच ज्ञानेन्द्रिय, छठा मन और सातवीं बुद्धि, इन सातों  द्वारा   चराचर ब्रह्माण्ड के प्रति परमात्मा की रचना को ज्ञानगम्य करके मनुष्य उस प्रकाशस्वरूप को प्राप्त होता है, जहाँ “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्”=न सूर्य्य का प्रकाश पहुँच सकता और न चन्द्र तथा तारागण अपना प्रकाश पहुँचा सकते हैं। इस भाव से यहाँ वृत्तियों का वर्णन किया है अर्थात् योगी पुरुषों के अन्त:करण की वृत्तियें ही उस परज्योति को प्राप्त करने में समर्थ होती हैं। यहाँ सूर्य्य की सात किरणों का कोई प्रकरण नहीं, क्योंकि मन्त्र में “सूर्य्य” शब्द उस जगत्पति परमात्मा का विशेषण है, जो प्रकाशस्वरूप परमात्मा को ग्रहण कराता है, इस भौतिक सूर्य्य का नहीं। तीसरे सूक्त के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट वर्णन किया गया है कि प्रकाशस्वरूप परमात्मा इस सूर्य्य का पति है और उसी से यह उत्पन्न होता है ॥१५॥१०॥
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ARYAMUNI

अथेश्वरप्राप्तये साधनान्तराणि कथ्यन्ते।

Word-Meaning: - (रथे) योगिनां मार्गे भवन्त्यः (हरितः) मनोवृत्तयः (सूर्यं) प्रकाशरूपं परमात्मानम् (वहन्ति) अधिगच्छन्ति यः (सुविताय) कल्याणाय इदं ब्रह्माण्डगोलकमुत्पाद्य अत्रस्थस्य (जगतः, तस्थुषः, पतिम्) चराचरस्य पतिरस्ति, अथ च (आ, रजः, विश्वं) परमाणोरारभ्य समस्तं भुवनम् (समया) अनादिकालाद् विद्यते। तत्प्राप्तये (शीर्ष्णः, शीर्ष्णः) सर्वेषां जनानां मस्तकेषु (सप्त, स्वसारः) सप्तधा इन्द्रियवृत्तयः सन्ति ॥१५॥