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प्र बु॒ध्न्या॑ व ईरते॒ महां॑सि॒ प्र नामा॑नि प्रयज्यवस्तिरध्वम्। स॒ह॒स्रियं॒ दम्यं॑ भा॒गमे॒तं गृ॑हमे॒धीयं॑ मरुतो जुषध्वम् ॥१४॥

English Transliteration

pra budhnyā va īrate mahāṁsi pra nāmāni prayajyavas tiradhvam | sahasriyaṁ damyam bhāgam etaṁ gṛhamedhīyam maruto juṣadhvam ||

Pad Path

प्र। बु॒ध्न्या॑। वः॒। ई॒र॒ते॒। महां॑सि। प्र। नामा॑नि। प्र॒ऽय॒ज्य॒वः॒। ति॒र॒ध्व॒म्। स॒ह॒स्रिय॑म्। दम्य॑म्। भा॒गम्। ए॒तम्। गृ॒ह॒ऽमे॒धीय॑म्। म॒रु॒तः॒। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥१४॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:56» Mantra:14 | Ashtak:5» Adhyay:4» Varga:24» Mantra:4 | Mandal:7» Anuvak:4» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (मरुतः) पवनों के समान (प्रयज्यवः) उत्तम सङ्ग करनेवालो ! तुम जो (वः) तुम लोगों के (महांसि) बड़े-बड़े (नामानि) नामों को (बुध्न्याः) अन्तरिक्ष में उत्पन्न हुए मेघ (प्र, ईरते) प्राप्त होते हैं उससे शत्रुओं के (प्र, तिरध्वम्) बल को उल्लङ्घन करो (एतम्) इस (सहस्रियम्) हजारों में हुए और (दम्यम्) शान्त करने योग्य (गृहमेधीयम्) घर के शुद्ध व्यवहार में हुए (भागम्) सेवने करने योग्य विषय को (जुषध्वम्) सेवो ॥१४॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे गृहस्थो ! जैसे मेघ पृथिवी को सेवते हैं, वैसे ही आप लोग प्रजाजनों को सेओ और शत्रुओं की निवृत्ति कर अतुल सुख पाओ ॥१४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥

Anvay:

हे मरुतः प्रयज्यवो ! यूयं ये वो महांसि नामानि बुध्न्याः प्रेरते तैः शत्रून् प्रतिरध्वमेतं सहस्रियं दम्यं गृहमेधीयं भागं जुषध्वम् ॥१४॥

Word-Meaning: - (प्र) (बुध्न्याः) बुध्न्येऽन्तरिक्षे मेघाः (वः) युष्माकम् (ईरते) प्राप्नुवन्ति (महांसि) (प्र) (नामानि) (प्रयज्यवः) प्रकर्षेण सङ्गन्तारः (तिरध्वम्) शत्रुबलमुल्लङ्घध्वम् (सहस्रियम्) सहस्रेषु भवं (दम्यम्) दमनीयम् (भागम्) भजनीयम् (एतम्) (गृहमेधीयम्) गृहमेधे गृहस्थे शुद्धे व्यवहारे भवम् (मरुतः) वायव इव (जुषध्वम्) सेवध्वम् ॥१४॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे गृहस्था ! यथा मेघाः पृथिवीं सेवन्ते तथैव भवन्तः प्रजाः सेवध्वम् शत्रून्निवार्यातुलसुखं प्राप्नुत ॥१४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघ पृथ्वीचे सेवन करतात तसा तुम्ही प्रजेचा स्वीकार करा. शत्रूची निवृत्ती करून अतुल सुख प्राप्त करा. ॥ १४ ॥