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प्र य॒ज्ञ ए॑तु॒ हेत्वो॒ न सप्ति॒रुद्य॑च्छध्वं॒ सम॑नसो घृ॒ताचीः॑। स्तृ॒णी॒त ब॒र्हिर॑ध्व॒राय॑ सा॒धूर्ध्वा शो॒चींषि॑ देव॒यून्य॑स्थुः ॥२॥

English Transliteration

pra yajña etu hetvo na saptir ud yacchadhvaṁ samanaso ghṛtācīḥ | stṛṇīta barhir adhvarāya sādhūrdhvā śocīṁṣi devayūny asthuḥ ||

Pad Path

प्र। य॒ज्ञः। ए॒तु॒। हेत्वः॑। न। सप्तिः॑। उत्। य॒च्छ॒ध्व॒म्। सऽम॑नसः। घृ॒ताचीः॑। स्तृ॒णी॒त। ब॒र्हिः। अ॒ध्व॒राय॑। सा॒धु। ऊ॒र्ध्वा। शो॒चींषि॑। दे॒व॒ऽयूनि॑। अ॒स्थुः॒ ॥२॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:43» Mantra:2 | Ashtak:5» Adhyay:4» Varga:10» Mantra:2 | Mandal:7» Anuvak:3» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (समनसः) समान ज्ञान वा समान मनवाले विद्वानो ! जिन आप लोगों को (यज्ञः) विज्ञानमय सङ्ग करने योग्य व्यवहार (एतु) प्राप्त हो वे आप लोग (हेत्वः) अच्छे बड़े हुए वेगवान् (सप्तिः) घोड़ा के (न) समान सब को (प्र, उत्, यच्छध्वम्) अतीव उद्यमी करो जिसके (ऊर्ध्वा) ऊपर जानेवाले (देवयूनि) दिव्य उत्तम गुणों को करते हुए (शोचींषि) तेज (अस्थुः) स्थिर होते हैं उससे (अध्वराय) अहिंसामय यज्ञ के लिये आप (घृताचीः) रात्रियों और (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (साधु) समीचीनता से (स्तृणीत) आच्छादित करो ॥२॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे गृहस्थो ! जिससे वायु, जल और ओषधि पवित्र होती हैं, उस यज्ञ का निरन्तर अनुष्ठान करो, यज्ञ धूम से अन्तरिक्ष को ढाँपो। हे अतिथियो ! तुम सब मनुष्यों को सारथि, घोड़ों को जैसे, वैसे धर्म कामों में उद्यमी कर इनका आलस्य दूर करो, जिससे इनको समस्त लक्ष्मी प्राप्त हो ॥२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

Anvay:

हे समनसो विद्वांसो ! यान् युष्मान् यज्ञ एतु ते यूयं हेत्वस्सप्तिर्न सर्वान् प्रोद्यच्छध्वं यस्योर्ध्वा देवयूनि शोचींष्यस्थुस्तस्मादध्वराय यूयं घृताचीर्बहिश्च साधु स्तृणीत ॥२॥

Word-Meaning: - (प्र) प्रकर्षे (यज्ञः) विज्ञानमयः सङ्गन्तुमर्हः (एतु) प्राप्नोतु (हेत्वः) प्रवृद्धो वेगवान् (न) इव (सप्तिः) अश्वः (उत्) (यच्छध्वम्) उद्यमिनः कुरुत (समनसः) सज्ञानाः समानमनसः (घृताचीः) या घृतमुदकमञ्चन्ति ता रात्रीः। घृताचीति रात्रिनाम। (निघं०१.७)। (स्तृणीत) आच्छादयत (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (अध्वराय) अहिंसामयाय यज्ञाय (साधु) समीचीनतया (ऊर्ध्वा) ऊर्ध्वं गन्तॄणि (शोचींषि) तेजांसि (देवयूनि) देवान् दिव्यान् गुणान् कुर्वन्ति (अस्थुः) तिष्ठन्ति ॥२॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः । हे गृहस्था ! येन वायूदकौषधयः पवित्रा जायन्ते तं यज्ञं सततमनुतिष्ठन्तु यज्ञधूमेनान्तरिक्षमाच्छादयत, हे अतिथयो ! यूयं सर्वान् मनुष्यान् सारथिरश्वानिव धर्मकृत्येषूद्यमिनः कृत्वैषामालस्यं दूरीकुरुत यदेतान् सकला श्रीः प्राप्नुयात् ॥२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - भावार्थ ः ज्या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे गृहस्थानो! यज्ञाचे निरंतर अधिष्ठान करा, त्यामुळे जल व औषध पवित्र होते. यज्ञाच्या धुराने अंतरिश आच्छादित करा. हे अतिथींनो! सारथी जसा घोड्याला वेगवान करतो तसे सर्व माणसांना धर्मकार्यात उद्यमी बनवून त्यांचा आळस दूर करा. ज्यामुळे त्यांना लक्ष्मी प्राप्त होईल. ॥ २ ॥