शं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वहू॑तौ॒ शम॒न्तरि॑क्षं दृ॒शये॑ नो अस्तु। शं न॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ भवन्तु॒ शं नो॒ रज॑स॒स्पति॑रस्तु जि॒ष्णुः ॥५॥
śaṁ no dyāvāpṛthivī pūrvahūtau śam antarikṣaṁ dṛśaye no astu | śaṁ na oṣadhīr vanino bhavantu śaṁ no rajasas patir astu jiṣṇuḥ ||
शम्। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पू॒र्वऽहू॑तौ। शम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒शये॑। नः॒। अ॒स्तु॒। शम्। नः॒। ओष॑धीः। व॒निनः॑। भ॒व॒न्तु॒। शम्। नः॒। रज॑सः। पतिः॑। अ॒स्तु॒। जि॒ष्णुः ॥५॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे जगदीश्वरशिक्षकौ ! भवत्कृपोपदेशाभ्यां पूर्वहूतौ द्यावापृथिवी नश्शं दृशयेऽन्तरिक्षं नश्शमस्त्वोषधीर्वनिनो नश्शं भवन्तु रजसस्पतिर्जिष्णुर्नश्शमस्तु ॥५॥
MATA SAVITA JOSHI
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