जु॒षस्व॑ नः स॒मिध॑मग्ने अ॒द्य शोचा॑ बृ॒हद्य॑ज॒तं धू॒ममृ॒ण्वन्। उप॑ स्पृश दि॒व्यं सानु॒ स्तूपैः॒ सं र॒श्मिभि॑स्ततनः॒ सूर्य॑स्य ॥१॥
juṣasva naḥ samidham agne adya śocā bṛhad yajataṁ dhūmam ṛṇvan | upa spṛśa divyaṁ sānu stūpaiḥ saṁ raśmibhis tatanaḥ sūryasya ||
जु॒षस्व॑। नः॒। स॒म्ऽइध॑म्। अ॒ग्ने॒। अ॒द्य। शोच॑। बृ॒हत्। य॒ज॒तम्। धू॒मम्। ऋ॒ण्वन्। उप॑। स्पृ॒श॒। दि॒व्यम्। सानु॑। स्तूपैः॑। सम्। र॒श्मिऽभिः॑। त॒त॒नः॒। सूर्य॑स्य ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अब पञ्चमाष्टक के द्वितीयाऽध्याय का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् लोग किसके तुल्य वर्तें, इस विषय का उपदेश करते हैं।
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अथ विद्वांसः किंवद्वर्त्तेरन्नित्याह ॥
हे अग्ने ! त्वमग्निः समिधमिव नः प्रजा जुषस्व पावकइवाद्य बृहद्यजतं शोचा धूममृण्वन्नाग्निरिव सत्यानि कार्य्याण्युपस्पृश सूर्यस्य स्तूपै रश्मिभिर्वायुवद् दिव्यं सानु सं ततनः ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात (अग्नी) माणूस, विद्युत, विद्वान, अध्यापक, उपदेशक, उत्तम वाणी, पुरुषार्थ, विद्वानांचा उपदेश व स्त्री इत्यादींच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.