Go To Mantra

अर्णां॑सि चित्पप्रथा॒ना सु॒दास॒ इन्द्रो॑ गा॒धान्य॑कृणोत्सुपा॒रा। शर्ध॑न्तं शि॒म्युमु॒चथ॑स्य॒ नव्यः॒ शापं॒ सिन्धू॑नामकृणो॒दश॑स्तीः ॥५॥

English Transliteration

arṇāṁsi cit paprathānā sudāsa indro gādhāny akṛṇot supārā | śardhantaṁ śimyum ucathasya navyaḥ śāpaṁ sindhūnām akṛṇod aśastīḥ ||

Mantra Audio
Pad Path

अर्णां॑सि। चि॒त्। प॒प्र॒था॒ना। सु॒ऽदासे॑। इन्द्रः॑। गा॒धानि॑। अ॒कृ॒णो॒त्। सु॒ऽपा॒रा। शर्ध॑न्तम्। शि॒म्युम्। उ॒चथ॑स्य। नव्यः॑। शाप॑म्। सिन्धू॑नाम्। अ॒कृ॒णो॒त्। अश॑स्तीः ॥५॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:18» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:2» Varga:24» Mantra:5 | Mandal:7» Anuvak:2» Mantra:5


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर राजा किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे राजन् ! (नव्यः) नवीनों में प्रसिद्ध आप (इन्द्रः) सूर्य वा बिजुली (चित्) के समान (सुदासे) सुन्दर देने योग्य व्यवहार में (पप्रथाना) विस्तीर्ण (अर्णांसि) जल जो (गाधानि) परिमित हैं उनको (सुपारा) सुन्दरता से पार जाने योग्य (अकृणोत्) करते हैं (सिन्धूनाम्) नदियों को (अशस्तीः) अप्रशंसित जलरहित (अकृणोत्) करते हैं, वैसे (उचथस्य) कहने योग्य (शर्धन्तम्) बल करते हुए (शिम्युम्) अपने को कर्म की कामना करनेवाले के प्रति (शापम्) शाप अर्थात् जिससे दण्ड देते हैं, ऐसे काम को करें ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजा ! जैसे सूर्य वा बिजुली समुद्रस्थ जलों को सुख से पार जाने योग्य करता है, वैसे ही व्यवहारों को भी परिमाण युक्त और सुगम कर दुष्टों का नाश और श्रेष्ठों का सम्मान कर दुष्टों की अधर्म क्रियाओं को निन्दित आप सदा करें ॥५॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुना राजा किंवत् किं कुर्यादित्याह ॥

Anvay:

हे राजन् ! नव्यस्त्वमिन्द्रश्चित् सुदासे पप्रथाना अर्णांसि गाधानि सुपाराऽकृणोत् सिन्धूनामशस्तीरकृणोत् तथोचथस्य शर्धन्तं शिम्युं प्रति शापं कुर्याः ॥५॥

Word-Meaning: - (अर्णांसि) उदकानि (चित्) इव (पप्रथाना) विस्तीर्णानि (सुदासे) सुष्ठु दातव्ये व्यवहारे (इन्द्रः) सूर्यो विद्युद्वा (गाधानि) परिमितानि (अकृणोत्) करोति (सुपारा) सुखेन पारं गन्तुं योग्यानि (शर्धन्तम्) बलं कुर्वन्तम् (शिम्युम्) आत्मनः शिमिकर्म कामयमानम्। शिमीति कर्मनाम। (निघं०२.१)। (उचथस्य) वक्तुं योग्यस्य (नव्यः) नवेषु भवः (शापम्) शपन्त्याक्रुश्यन्ति येन तम् (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (अकृणोत्) करोति (अशस्तीः) अप्रशंसिता निरुदकाः ॥५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् यथा सूर्यो विद्युद्वा समुद्रस्थान्यपि जलानि सुखेन पारं गन्तुं योग्यानि करोति तथैव व्यवहारान् परिमितान् सुगमान् कृत्वा दुष्टनाशनं श्रेष्ठसम्मानं विधाय दुष्टानामधर्म्याः क्रिया निन्दितास्त्वं सदा कुर्याः ॥५॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जसा सूर्य किंवा विद्युत समुद्रातील जल सुखपूर्वक पलीकडे जाण्यायोग्य करतात तसेच व्यवहारांना परिमाणयुक्त व सुलभ करून तू दुष्टांचा नाश व श्रेष्ठांचा सन्मान करून दुष्टांच्या अधार्मिक कृत्याची सदैव निंदा कर. ॥ ५ ॥