Word-Meaning: - (अद्य) आज ही (मुरीय) मृत्यु को प्राप्त होऊँ (यदि) यदि मैं (यातुधानः) दण्ड का (अस्मि) भागी होऊँ (यदि वा) अथवा (पूरुषस्य) पुरुष की (आयुः, ततप) आयु को तपानेवाला होऊँ, (अध) तब (वीरैः दशभिः) दशवीर सन्तान से (वियूयाः) वियुक्त वह पुरुष हो, (यः) जो (मोघं) वृथा ही (यातुधानेति) यातुधान ऐसा (आह) कहता है ॥१५॥
Connotation: - इस मन्त्र से पूर्व के मन्त्र में मिथ्या देवों के पुजारियों को (यातुधाना) राक्षस वा दण्ड के भागी कथन किया गया है, उसी प्रकरण में वेदानुयायी आस्तिक पुरुष शपथ खाकर कहता है कि यदि मैं भी ऐसा हूँ, तो मेरा जीना सर्वथा निष्फल है, इससे मर जाना भला है। इस मन्त्र में परमात्मा ने इस बात की शिक्षा दी है कि जो पुरुष संसार का उपकार नहीं करता और सच्चे विश्वास से संसार में आस्तिक भाव का प्रचार नहीं करता, उसका जीना पृथ्वी के लिए एकमात्र भार है, उससे कोई लौकिक वा पारलौकिक उपकार नहीं।इसी भाव को भगवान् कृष्ण गीता में यों कहते हैं “अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति”। हे अर्जुन ! जो पापमय आयु व्यतीत करता है और केवल अपने इन्द्रिय के ही भोगों में रत है, उसका जीवन सर्वथा निष्फल है। मालूम होता है वेद के उक्त (मोघ) शब्द से ही गीता में “मोघं पार्थ जीवति” यह वाक्य लिया गया है, कहीं अन्यत्र से नहीं। विशेष ध्यान रखने योग्य वेद की यह अपूर्व्वता अर्थात् अनूठापन है कि इसमें अपनी पवित्रता के लिए जीव शपथें खाता है और विधर्म्मी लोगों के धर्म्मपुस्तकों में अपनी सफाई के लिए ईश्वर भी शपथें खाकर विश्वास दिलाया करता है ॥१५॥