घृ॒तव॑ती॒ भुव॑नानामभि॒श्रियो॒र्वी पृ॒थ्वी म॑धु॒दुघे॑ सु॒पेश॑सा। द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा॒ विष्क॑भिते अ॒जरे॒ भूरि॑रेतसा ॥१॥
ghṛtavatī bhuvanānām abhiśriyorvī pṛthvī madhudughe supeśasā | dyāvāpṛthivī varuṇasya dharmaṇā viṣkabhite ajare bhūriretasā ||
घृ॒तव॑ती॒ इति॑ घृ॒तऽव॑ती। भुव॑नानाम्। अ॒भि॒ऽश्रिया॑। उ॒र्वी। पृ॒थ्वी इति॑। म॒धु॒दुघे॒ इति॑ म॒धु॒ऽदुघे॑। सु॒ऽपेश॑सा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। वरु॑णस्य। धर्म॑णा। विस्क॑भिते॒ इति॒ विऽस्क॑भिते। अ॒जरे॒ इति॑। भूरि॑ऽरेतसा ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अब छः ऋचावाले सत्तरवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में भूमि और सूर्य कैसे वर्त्तमान हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अथ भूमिसूर्यौ कीदृशौ इत्याह ॥
हे मनुष्या ! यूयं भुवनानामभिश्रियोर्वी पृथ्वी घृतवती मधुदुघे सुपेशसा भूरिरेतसाऽजरे वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते द्यावापृथिवी यथावद्विजानीत ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात द्यावापृथ्वी व त्यांच्याप्रमाणे अध्यापक व उपदेशक, ऋत्विज व यजमानाच्या कार्यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.