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सं वां॒ कर्म॑णा॒ समि॒षा हि॑नो॒मीन्द्रा॑विष्णू॒ अप॑सस्पा॒रे अ॒स्य। जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं द्रवि॑णं च धत्त॒मरि॑ष्टैर्नः प॒थिभिः॑ पा॒रय॑न्ता ॥१॥

English Transliteration

saṁ vāṁ karmaṇā sam iṣā hinomīndrāviṣṇū apasas pāre asya | juṣethāṁ yajñaṁ draviṇaṁ ca dhattam ariṣṭair naḥ pathibhiḥ pārayantā ||

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Pad Path

सम्। वा॒म्। कर्म॑णा। सम्। इ॒षा। हि॒नो॒मि॒। इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑। अप॑सः। पा॒रे। अ॒स्य। जु॒षेथा॑म्। य॒ज्ञम्। द्रवि॑णम्। च॒। ध॒त्त॒म्। अरि॑ष्टैः। नः॒। प॒थिऽभिः॑। पा॒रय॑न्ता ॥१॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:69» Mantra:1 | Ashtak:5» Adhyay:1» Varga:13» Mantra:1 | Mandal:6» Anuvak:6» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब आठ ऋचावाले उनहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा और शिल्पी जन क्या करके क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्राविष्णू) सूर्य्य और बिजुली के समान वर्त्तमान महाराज और शिल्पीजनो ! जिन (वाम्) तुम दोनों को मैं (कर्मणा) अतीव चाहे हुए काम से (सम्, हिनोमि) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ (अस्य) इस (अपसः) काम के (पारे) पार में (इषा) अन्नादि पदार्थों से (सम्) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ वे (अरिष्टैः) हिंसकरहित (पथिभिः) मार्गों से (नः) हम लोगों को (पारयन्ता) पार करते हुए हम तुम (यज्ञम्) सङ्गतिकरण कार्य (द्रविणम्, च) और धन वा यश को (जुषेथाम्) सेवो और हम लोगों के लिये (धत्तम्) धारण करो ॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे अध्यापक और उपदेशको ! जैसे वायु और बिजुली विमानादिकों में अच्छे प्रकार जोड़े हुए गतिरूप कर्म के विषय को स्थान से पार पहुँचाते हैं, वैसे उनकी विद्या में तुमको प्रेरणा देकर जिस प्रकार हम लोग बढ़ावें उस प्रकार बढ़कर निर्विघ्न मार्गों से हम लोगों को लेजाके धन और यश की प्राप्ति निरन्तर कराइये, उन आप लोगों की सेवा हम लोग निरन्तर करें ॥१॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ राजशिल्पिनौ किं कृत्वा किं कुर्यातामित्याह ॥

Anvay:

हे इन्द्राविष्णू इव वर्त्तमानौ महाराजशिल्पिनौ ! यौ वामहं कर्मणा सं हिनोमि। अस्यापसः पार इषा संहिनोमि तावरिष्टैः पथिभिर्नः पारयन्ता युवां यज्ञं द्रविणं च जुषेथां नोऽस्मभ्यं धत्तम् ॥१॥

Word-Meaning: - (सम्) सम्यक् (वाम्) युवाम् (कर्मणा) ईप्सिततमेन व्यापारेण (सम्) सम्यक् (इषा) अन्नादिना (हिनोमि) वर्धयामि (इन्द्राविष्णू) सूर्यविद्युतौ (अपसः) कर्मणः (पारे) (अस्य) (जुषेथाम्) सेवेथाम् (यज्ञम्) सङ्गतिकरणम् (द्रविणम्) धनं यशो वा (च) (धत्तम्) (अरिष्टैः) अहिंसितैर्हिंसकरहितैः (नः) अस्मानस्मभ्यं वा (पथिभिः) मार्गैः (पारयन्ता) पारं गमयन्तौ ॥१॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथा वायुविद्युतौ यानेषु सम्प्रयोजितौ गमनरूपस्य कर्मणो विषयं स्थानात्पारे गमयतस्तथा तयोर्विद्यायां युष्मान् संप्रेर्य यथा वर्द्धयेम तथा वृद्धा भूत्वा निर्विघ्नैर्मार्गैरस्मान् पारं गमयित्वा धनं यशश्च सततं प्रापयतं तौ वयं सततं सेवेमहि ॥१॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात इंद्र व विष्णूप्रमाणे सभा व सेनाधीशाच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे अध्यापक व उपदेशकांनो! जसे वायू व विद्युत यांना यानामध्ये वापरून गमन करता येते तसे त्या विद्येच्या प्रेरणेने ज्या प्रकारे आम्ही तुम्हाला वर्धित करतो तशा प्रकारे वृद्धी करून आम्हाला निर्विघ्न मार्गाने न्यावे व धन आणि यशाची प्राप्ती करवावी. आम्हीही तुमची निरंतर सेवा करावी. ॥ १ ॥