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स इत्सु॒दानुः॒ स्ववाँ॑ ऋ॒तावेन्द्रा॒ यो वां॑ वरुण॒ दाश॑ति॒ त्मन्। इ॒षा स द्वि॒षस्त॑रे॒द्दास्वा॒न्वंस॑द्र॒यिं र॑यि॒वत॑श्च॒ जना॑न् ॥५॥

English Transliteration

sa it sudānuḥ svavām̐ ṛtāvendrā yo vāṁ varuṇa dāśati tman | iṣā sa dviṣas tared dāsvān vaṁsad rayiṁ rayivataś ca janān ||

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Pad Path

सः। इत्। सु॒ऽदानुः॑। स्वऽवा॑न्। ऋ॒तऽवा॑। इन्द्रा॑। यः। वा॒म्। व॒रु॒णा॒ दाश॑ति। त्मन्। इ॒षा। सः। द्वि॒षः। त॒रे॒त्। दास्वा॑न्। वंस॑त्। र॒यिम्। र॒यि॒ऽवतः॑। च॒। जना॑न् ॥५॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:68» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:1» Varga:11» Mantra:5 | Mandal:6» Anuvak:6» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर राजसेनाजन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्रा, वरुण) सूर्य्य और वायु के समान वर्त्तमान सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का (यः) जो (सुदानुः) उत्तम देनेवाला (स्ववान्) जिसके अपने लोग बहुत विद्यमान हैं (ऋतावा) जो सत्य को भजता है वह (त्मन्) आत्मा में अभयपन (दाशति) देता है जो (दास्वान्) देनेवाला होता हुआ (इषा) अन्न आदि से (द्विषः) शत्रुजनों को (तरेत्) तरे और (रयिवतः) बहुधनवान् (जनान्, च) जनों को भी (रयिम्) धन का (वंसत्) विभाग करे (सः, इत्) वही सर्वोत्तम और (सः) वह राजा होने योग्य है ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य वर्षा करा कर और वायु प्राण धारणा करा कर ये दोनों सब प्राणियों को निर्भय करते हैं, वैसे जो सङ्ग्राम के बीच अच्छे प्रकार सन्मुख हैं, उनसे पाये हुए धन का यथावत् विभाग कर सोलहवाँ भाग भृत्यों के लिये देते हैं तथा वहाँ सङ्ग्राम में जो योद्धा जीते, उनके लिये उससे सोलहवाँ भाग देते हैं, वे ही विजयी होकर आपस में प्रसन्न होते हैं ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुना राजसेनाजनाः किं कुर्य्युरित्याह ॥

Anvay:

हे इन्द्रावरुणेव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! वां यः सुदानुः स्ववानृतावा त्मन्नभयं दाशति यो दास्वानिषा द्विषस्तरेद् रयिवतो जनांश्च रयिं वंसत् स इत्सर्वोत्तमः स राजा भवितुमर्हति ॥५॥

Word-Meaning: - (सः) (इत्) एव (सुदानुः) सुष्ठुदाता (स्ववान्) स्वे आत्मीया बहवो विद्यन्ते यस्य सः (ऋतावा) य ऋतं सत्यं वनति भजति सः (इन्द्रा) सूर्यः (यः) (वाम्) युवयोः (वरुण) वायुः (दाशति) ददाति (त्मन्) आत्मनि (इषा) अन्नाद्येन (सः) (द्विषः) शत्रून् (तरेत्) (दास्वान्) दाता सन् (वंसत्) विभजेत् (रयिम्) धनम् (रयिवतः) बहुधनवतः (च) (जनान्) ॥५॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यो वर्षयित्वा वायुश्च प्राणय्य सर्वान् प्राणिनोऽभयं कुरुतस्तथा ये सङ्ग्रामे समुदितैर्लब्धस्य धनस्य यथावद्विभज्य षोडशांशं भृत्येभ्यो ददति तत्र ये योद्धारो जयेयुस्तेभ्यस्तस्मादपि षोडशांशं प्रयच्छन्ति त एव विजयिनो भूत्वा परस्परस्मिन् प्रसन्ना भवन्ति ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य वृष्टी करून व वायू प्राण धारण करवून सर्व प्राण्यांना निर्भय करतात, तसे जे युद्धात समोरासमोर असतात त्यांच्याकडून प्राप्त झालेल्या धनाचे व्यवस्थित वाटप करून सोळावा भाग सेवकांना द्यावा व युद्धात जे योद्धे जिंकतात त्यांना सोळावा भाग द्यावा. त्यामुळे ते विजयी बनतात व परस्पर प्रसन्न राहतात. ॥ ५ ॥