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सर॑स्वत्य॒भि नो॑ नेषि॒ वस्यो॒ माप॑ स्फरीः॒ पय॑सा॒ मा न॒ आ ध॑क्। जु॒षस्व॑ नः स॒ख्या वे॒श्या॑ च॒ मा त्वत्क्षेत्रा॒ण्यर॑णानि गन्म ॥१४॥

English Transliteration

sarasvaty abhi no neṣi vasyo māpa spharīḥ payasā mā na ā dhak | juṣasva naḥ sakhyā veśyā ca mā tvat kṣetrāṇy araṇāni ganma ||

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Pad Path

सर॑स्वति। अ॒भि। नः॒। ने॒षि॒। वस्यः॑। मा। अप॑। स्फ॒रीः॒। पय॑सा। मा। नः॒। आ। ध॒क्। जु॒षस्व॑। नः॒। स॒ख्या। वे॒श्या॑। च॒। मा। त्वत्। क्षेत्रा॑णि। अर॑णानि। ग॒न्म॒ ॥१४॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:61» Mantra:14 | Ashtak:4» Adhyay:8» Varga:32» Mantra:4 | Mandal:6» Anuvak:5» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसी है, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (सरस्वति) बहुत विद्या से युक्त विदुषी स्त्री ! जो तू (नः) हमारे (वस्यः) अतीव ओढ़ने योग्य वस्त्र आदि को (अभि, नेषि) सन्मुख लाती है सो तू सुशिक्षित वाणी से हीन हम लोगों को (मा) मत (अप, स्फरीः) अवृद्ध करे किन्तु वृद्धियुक्त करे और (पयसा) विशेष रससे अलग कर (नः) हम लोगों को (मा, आ, धक्) मत दाह दे और (वेश्या) समीप प्रवेश करने योग्य (सख्या) मित्रपन से (च) भी (नः) हम लोगों को (जुषस्व) सेवे तथा (त्वत्) तेरे (अरणानि) अरमणीय (क्षेत्राणि) निवासस्थानों को हम लोग (मा, गन्म) मत प्राप्त हों, इससे तू सत्कार करने योग्य है ॥१४॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जो विदुषी स्त्रियाँ जैसे विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी सर्वत्र अच्छे प्रकार रक्षाकर सर्वथा वृद्धि देती है वा जो सत्यभाषण आदि से दुःख को नहीं प्राप्त कराती, उसके तुल्य वर्त्तमान हैं, वे हम लोगों को शोकादिकों से अलग कर मित्रता से अच्छे प्रकार सेवन करती और सर्वदैव आनन्दित करती हैं ॥१४॥ इस सूक्त में वाणी के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्पमहंस परिव्राजकाचार्य परमविद्वान् श्रीमान् विरजानन्द सरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमान् दयानन्द सरस्वती स्वामी से विरचित सुप्रमाणयुक्त तथा संस्कृत और आर्यभाषा से विभूषित ऋग्वेदभाष्य में चतुर्थ अष्टक में अष्टम अध्याय और बत्तीसवाँ वर्ग और चतुर्थ अष्टक भी तथा छठे मण्डल में पञ्चम अनुवाक और एकसठवाँ सूक्त भी समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः सा कीदृशीत्याह ॥

Anvay:

हे सरस्वति विदुषि स्त्रि ! या त्वं नो वस्योऽभि नेषि सा त्वं सुशिक्षितया वाचा विरहानस्मान् माप स्फरीः पयसा वियोज्य नोऽस्मान् माऽऽधक् वेश्या सख्या च नोऽस्माञ्जुषस्व त्वदरणानि क्षेत्राणि वयं मा गन्म तस्मात्त्वं पूजनीयासि ॥१४॥

Word-Meaning: - (सरस्वती) बहुविद्यायुक्ते (अभि) (नः) अस्माकम् (नेषि) नयसि (वस्यः) अतिशयेन वसीयः (मा) (अप) (स्फरीः) अवृद्धं मा कुर्याः (पयसा) रसविशेषेण (मा) (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (धक्) दहेत् (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्मान् (सख्या) मित्रत्वेन (वेश्या) उपवेष्टुं योग्येन (च) (मा) (त्वत्) (क्षेत्राणि) क्षियन्ति निवसन्ति येषु तानि (अरणानि) अरमणीयानि (गन्म) प्राप्नुयाम ॥१४॥
Connotation: - हे मनुष्या ! या विदुष्यः स्त्रियो यथा विद्यासुशिक्षाभ्यां युक्ता वाणी सर्वत्र संरक्ष्य सर्वथा वर्धयति या वा सत्यभाषणादिनाऽकल्याणं न प्रापयति तद्वद्वर्त्तमानाः सन्ति ता अस्माञ्छोकादिभ्यो वियोज्य मित्रत्वेन संसेवन्ते सर्वदैव चाऽऽनन्दयन्ति ॥१४॥ अत्र वाग्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत् परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्ते संस्कृतार्यभाषाविभूषित ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थाऽष्टकेऽष्टमोऽध्यायो द्वात्रिंशो वर्गश्चतुर्थोऽष्टकश्च षष्ठे मण्डले पञ्चमोऽनुवाक एकषष्टितमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो ! ज्या विदुषी स्त्रिया विद्या व उत्तम शिक्षणाने युक्त वाणी सर्वत्र चांगल्या प्रकारे वापरून सर्वस्वी वृद्धी करतात किंवा ज्या सत्यभाषण करतात, दुःख देत नाहीत, अकल्याण करीत नाहीत, बोलल्याप्रमाणेच वागतात, आम्हाला शोकापासून दूर ठेवतात व मैत्री करतात त्या सदैव आनंदी असतात. ॥ १४ ॥