उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥
ud u tyac cakṣur mahi mitrayor ām̐ eti priyaṁ varuṇayor adabdham | ṛtasya śuci darśatam anīkaṁ rukmo na diva uditā vy adyaut ||
उत्। ऊँ॒ इति॑। त्यत्। चक्षुः॑। महि॑। मि॒त्रयोः॑। आ। एति॑। प्रि॒यम्। वरु॑णयोः। अद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॑। शुचि॑। द॒र्श॒तम्। अनी॑कम्। रु॒क्मः। न। दि॒वः। उत्ऽइ॑ता॑। वि। अ॒द्यौ॒त् ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अब सोलह ऋचावाले इक्यावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या चाहने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥
हे अध्यापकोपदेशका ! यदि युष्मांस्त्यन्महि वरुणयोः प्रियं मित्रयोरदब्धमृतस्य शुचि दर्शतं दिव उदिता रुक्मो नाऽनीकं महि चक्षुर्व्यद्यौदा उदेति तर्हि भवन्ति उ विद्वांसो भवेयुः ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात विश्वेदेवाच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.