य॒ज्ञाय॑ज्ञा वो अ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से। प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न शं॑सिषम् ॥१॥
yajñā-yajñā vo agnaye girā-girā ca dakṣase | pra-pra vayam amṛtaṁ jātavedasam priyam mitraṁ na śaṁsiṣam ||
य॒ज्ञाऽय॑ज्ञा। वः॒। अ॒ग्नये॑। गि॒राऽगि॑रा। च॒। दक्ष॑से। प्रऽप्र॑। व॒यम्। अ॒मृत॑म्। जा॒तऽवे॑दसम्। प्रि॒यम्। मि॒त्रम्। न। शं॒सि॒ष॒म् ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अब चतुर्थाष्टक के अष्टमाध्याय का आरम्भ है, इसमें बाईस ऋचावाले अड़तालीसवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय का वर्णन करते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अथ विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे विद्वांसो ! वो यज्ञायज्ञा गिरागिरा चाऽग्नये दक्षसे वयं प्रयतेमह्यमृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न युष्मानहं यथा प्रप्र शंसिषं तथा यूयमप्यस्मान् प्रशंसत ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात अग्नी, मरुत, पूषा, पृश्णि, सूर्य, भूमी, विद्वान, राजा व प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.