उप॑ श्वासय पृथि॒वीमु॒त द्यां पु॑रु॒त्रा ते॑ मनुतां॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। स दु॑न्दुभे स॒जूरिन्द्रे॑ण दे॒वैर्दू॒राद्दवी॑यो॒ अप॑ सेध॒ शत्रू॑न् ॥२९॥
upa śvāsaya pṛthivīm uta dyām purutrā te manutāṁ viṣṭhitaṁ jagat | sa dundubhe sajūr indreṇa devair dūrād davīyo apa sedha śatrūn ||
उप॑। श्वा॒स॒य॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। पु॒रु॒ऽत्रा। ते॒। म॒नु॒ता॒म्। विऽस्थि॑तम्। जग॑त्। सः। दु॒न्दु॒भे॒। स॒ऽजूः। इन्द्रे॑ण। दे॒वैः। दू॒रात्। दवी॑यः। अप॑। से॒ध॒। शत्रू॑न् ॥२९॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे दुन्दुभे ! यथा स जगदीश्वरः पृथिवीमुत द्यां विष्ठितं जगन्मनुतां तेन पुरुत्रेन्द्रेण देवैः सजूस्त्वं शत्रून् दूराद्दवीयोऽप सेध यस्ते कल्याणं मनुतां तमुपास्य सर्वानुपश्वासय ॥२९॥
MATA SAVITA JOSHI
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