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परा॒ पूर्वे॑षां स॒ख्या वृ॑णक्ति वि॒तर्तु॑राणो॒ अप॑रेभिरेति। अना॑नुभूतीरवधून्वा॒नः पू॒र्वीरिन्द्रः॑ श॒रद॑स्तर्तरीति ॥१७॥

English Transliteration

parā pūrveṣāṁ sakhyā vṛṇakti vitarturāṇo aparebhir eti | anānubhūtīr avadhūnvānaḥ pūrvīr indraḥ śaradas tartarīti ||

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Pad Path

परा॑। पूर्वे॑षाम्। स॒ख्या। वृ॒ण॒क्ति॒। वि॒ऽतर्तु॑राणः। अप॑रेभिः। ए॒ति॒। अन॑नुऽभूतीः। अ॒व॒ऽधू॒न्वा॒नः। पू॒र्वीः। इन्द्रः॑। श॒रदः॑। त॒र्त॒री॒ति॒ ॥१७॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:47» Mantra:17 | Ashtak:4» Adhyay:7» Varga:33» Mantra:2 | Mandal:6» Anuvak:4» Mantra:17


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह राजा क्या नहीं करके क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - जो सूर्य्य के सदृश (इन्द्रः) राजा (पूर्वेषाम्) पूर्वजनों के (सख्या) मित्र से (वितर्त्तुराणः) विशेष करके अत्यन्त हिंसा करता और (अनानुभूतीः) अनुभव से रहित जनों को (अवधून्वानः) नीचे को कम्पाता हुआ (परा, वृणक्ति) त्यागता है और (अपरेभिः) अन्यों के साथ (एति) जाता है वह जैसे सूर्य्य (पूर्वीः) प्राचीन (शरदः) शरद् आदि ऋतुओं को, वैसे वर्षों के (तर्तरीति) अत्यन्त पार होता है ॥१७॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा वृद्ध जनों के मित्रपन का त्याग करके नीच मित्रों को प्राप्त होता है, वह कल्याण से च्युत होता है और जो अनभिज्ञ मित्रों का त्याग करके अभिज्ञों को मित्र करता है, वही पूर्ण आयु भर सुख से पार होता है ॥१७॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स राजा किमकृत्वा किं कुर्य्यादित्याह ॥

Anvay:

यः सूर्य्य इवेन्द्रः पूर्वेषां सख्या वितर्तुराणोऽनानुभूतीरवधून्वानः परावृणक्त्यपरेभिस्सहैति सः सूर्य्यः पूर्वीः शरद इव संवत्सराँस्तर्तरीति ॥१७॥

Word-Meaning: - (परा) (पूर्वेषाम्) (सख्या) मित्रेण (वृणक्ति) त्यजति (वितर्त्तुराणः) विशेषेण भृशं हिंसन् (अपरेभिः) अन्यैः (एति) गच्छति (अनानुभूतीः) अनुभवरहितान्। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (अवधून्वानः) अर्वाक्कम्पयन् (पूर्वीः) प्राचीनाः (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (शरदः) शरदाद्यृतून् (तर्तरीति) भृशं तरति ॥१७॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा वृद्धानां सखित्वं हित्वा नीचान् सखीनाप्नोति स श्रेयसश्च्युतो भवति यश्चानभिज्ञान् सखीन् विहायाऽभिज्ञान् सुहृदः करोति स एव पूर्णमायुः सुखेन तरति ॥१७॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा अनुभवी लोकांची मैत्री सोडून नीच मित्रांची संगती धरतो त्याचे कल्याण होत नाही व जो अनभिज्ञ मित्रांचा त्याग करून अभिज्ञांबरोबर मैत्री करतो तोच पूर्ण आयुष्यभर सुखाने जगतो. ॥ १७ ॥