य ओजि॑ष्ठ इन्द्र॒ तं सु नो॑ दा॒ मदो॑ वृषन्त्स्वभि॒ष्टिर्दास्वा॑न्। सौव॑श्व्यं॒ यो व॒नव॒त्स्वश्वो॑ वृ॒त्रा स॒मत्सु॑ सा॒सह॑द॒मित्रा॑न् ॥१॥
ya ojiṣṭha indra taṁ su no dā mado vṛṣan svabhiṣṭir dāsvān | sauvaśvyaṁ yo vanavat svaśvo vṛtrā samatsu sāsahad amitrān ||
यः। ओजि॑ष्ठः। इ॒न्द्र॒। तम्। सु। नः॒। दाः॒। मदः॑। वृ॒ष॒न्। सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिः। दास्वा॑न्। सौव॑श्व्यम्। यः। व॒नऽव॑त्। सु॒ऽअश्वः॑। वृ॒त्रा। स॒मत्ऽसु॑। स॒सह॑त्। अ॒मित्रा॑न् ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अब पाँच ऋचावाले तेंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है उसके प्रथम मन्त्र में राजा क्या करके क्या करावे, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अथ नृपः किं कृत्वा किं कारयेदित्याह ॥
हे वृषन्निन्द्र ! य ओजिष्ठो मदः स्वभिष्टिर्दास्वान् स त्वं नः सौवश्व्यं सु दाः। यः स्वश्वः सन् वृत्रा वनवत् समत्स्वमित्रान्त्सासहत् तं वयं सत्कुर्याम ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात इंद्र, राजा व प्रजेचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.