त्वं हि क्षैत॑व॒द्यशोऽग्ने॑ मि॒त्रो न पत्य॑से। त्वं वि॑चर्षणे॒ श्रवो॒ वसो॑ पु॒ष्टिं न पु॑ष्यसि ॥१॥
tvaṁ hi kṣaitavad yaśo gne mitro na patyase | tvaṁ vicarṣaṇe śravo vaso puṣṭiṁ na puṣyasi ||
त्वम्। हि। क्षैत॑ऽवत्। यशः॑। अग्ने॑। मि॒त्रः। न। पत्य॑से। त्वम्। वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒। श्रवः॑। वसो॒ इति॑। पु॒ष्टिम्। न। पु॒ष्य॒सि॒ ॥१॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अभ पञ्चमाध्याय का आरम्भ है और छठे मण्डल में ग्यारह ऋचावाले दूसरे सूक्त का आरम्भ किया जाता है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि कैसा होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
अथाग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
हे विचर्षणेऽग्ने ! हि त्वं क्षैतवद्यशो मित्रो न पत्यसे। हे वसो ! त्वं पुष्टिं न श्रवः पुष्यसि तस्मात्सुखी भवसि ॥१॥
MATA SAVITA JOSHI
या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.