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यद्बंहि॑ष्ठं॒ नाति॒विधे॑ सुदानू॒ अच्छि॑द्रं॒ शर्म॑ भुवनस्य गोपा। तेन॑ नो मित्रावरुणावविष्टं॒ सिषा॑सन्तो जिगी॒वांसः॑ स्याम ॥९॥

English Transliteration

yad baṁhiṣṭhaṁ nātividhe sudānū acchidraṁ śarma bhuvanasya gopā | tena no mitrāvaruṇāv aviṣṭaṁ siṣāsanto jigīvāṁsaḥ syāma ||

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Pad Path

यत्। बंहि॑ष्ठम्। न। अ॒ति॒ऽविधे॑। सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू। अच्छि॑द्रम्। शर्म॑। भु॒व॒न॒स्य॒। गो॒पा॒। तेन॑। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। अ॒वि॒ष्ट॒म्। सिसा॑सन्तः। जि॒गी॒वांसः॑। स्या॒म॒ ॥९॥

Rigveda » Mandal:5» Sukta:62» Mantra:9 | Ashtak:4» Adhyay:3» Varga:31» Mantra:4 | Mandal:5» Anuvak:5» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (सुदानू) उत्तम दान करनेवाले (भुवनस्य) सम्पूर्ण संसार के (गोपा) रक्षक (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान के सदृश वर्त्तमान राजा और मन्त्रीजनो ! आप दोनों जैसे (न, अतिविधे) अतिवेधन करने के अयोग्य (यत्) जिस (बंहिष्ठम्) अत्यन्त वृद्ध (अच्छिद्रम्) छिद्ररहित (शर्म) गृह को प्राप्त हूजिये (तेन) इससे (नः) हम लोगों को (अविष्टम्) व्याप्त हूजिये जिससे हम लोग (सिषासन्तः) विभाग करते हुए (जिगीवांसः) शत्रुओं के धनों को जीतने की इच्छा करनेवाले (स्याम) होवें ॥९॥
Connotation: - विद्वान् जन अति उत्तम गृहों को रचकर और वहाँ विचार करके विजय, विद्या और क्रिया को प्राप्त होते हैं ॥९॥ इस सूक्त में सूर्य, प्राण, उदान और राजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमद्दयानदसरस्वतीस्वामिविरचित उत्तम प्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्य में चतुर्थाष्टक में तीसरा अध्याय इकतीसवाँ वर्ग और पञ्चम मण्डल में बासठवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे सुदानू भुवनस्य गोपा मित्रावरुणौ ! युवां यथा नाऽतिविधे यद्बंहिष्ठमच्छिद्रं शर्म प्राप्नुतं तेन नोऽविष्टं येन वयं सिषासन्तो जिगीवांसः स्याम ॥९॥

Word-Meaning: - (यत्) (बंहिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (न) निषेधे (अतिविधे) अतिवेद्धुं योग्यौ (सुदानू) उत्तमदानकर्त्तारौ (अच्छिद्रम्) छिद्ररहितम् (शर्म) गृहम् (भुवनस्य) अखिलसंसारस्य (गोपा) रक्षकौ (तेन) (नः) अस्मान् (मित्रावरुणौ) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ राजामात्यौ (अविष्टम्) व्याप्नुतम् (सिषासन्तः) विभजन्तः (जिगीवांसः) शत्रुधनानि जेतुमिच्छन्तः (स्याम) भवेम ॥९॥
Connotation: - विद्वांसोऽत्युत्तमानि गृहाणि निर्म्माय तत्र विचारं कृत्वा विजयं विद्यां क्रियां च प्राप्नुवन्ति ॥९॥ अत्र सूर्यमित्रावरुणराजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थाष्टके तृतीयोऽध्याय एकत्रिंशो वर्गः पञ्चमे मण्डले द्विषष्टितमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - विद्वान लोक अत्यंत उत्तम गृहनिर्मिती करून तेथे विचारपूर्वक विजय, विद्या प्राप्त करून कार्य करतात. ॥ ९ ॥