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धाम॑न्ते॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मधि॑ श्रि॒तम॒न्तः स॑मु॒द्रे ह्य॒द्य१॒॑न्तरायु॑षि। अ॒पामनी॑के समि॒थे य आभृ॑त॒स्तम॑श्याम॒ मधु॑मन्तं त ऊ॒र्मिम् ॥११॥

English Transliteration

dhāman te viśvam bhuvanam adhi śritam antaḥ samudre hṛdy antar āyuṣi | apām anīke samithe ya ābhṛtas tam aśyāma madhumantaṁ ta ūrmim ||

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Pad Path

धाम॑न्। ते॒। विश्व॑म्। भुव॑नम्। अधि॑। श्रि॒तम्। अ॒न्तरिति॑। स॒मु॒द्रे। हृ॒दि। अ॒न्तः। आयु॑षि। अ॒पाम्। अनी॑के। स॒म्ऽइ॒थे। यः। आऽभृ॑तः। तम्। अ॒श्या॒म॒। मधु॑ऽमन्तम्। ते॒। ऊ॒र्मिम् ॥११॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:58» Mantra:11 | Ashtak:3» Adhyay:8» Varga:11» Mantra:6 | Mandal:4» Anuvak:5» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे भगवन् ! जिस (ते) आपके (धामन्) आधाररूप (अन्तः) मध्य (समुद्रे) अन्तरिक्ष और (हृदि) हृदय के (अन्तः) मध्य में (आयुषि) जीवन के निमित्त प्राण में (अपाम्) प्राणों की (अभीके) सेना में और (समिथे) संग्राम में (विश्वम्) सम्पूर्ण (भुवनम्) जगत् (अधि) ऊपर (श्रितम्) स्थित है तथा (यः) जो (ते) आप का विद्वानों से (आभृतः) सब प्रकार धारण किया गया (तम्) उस (मधुमन्तम्) माधुर्य्यगुण से युक्त (उर्मिम्) रक्षा आदि व्यवहार और आनन्द को हम लोग (अश्याम) प्राप्त होवें, उस आपकी उपासना को निरन्तर करें ॥११॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर जगत् को अभिव्याप्त होके सब को धारण कर और उत्तम प्रकार रक्षा करके अन्तर्य्यामिरूप से सर्वत्र व्याप्त है और जिसकी कृपा से विज्ञान, बहुत कालपर्य्यन्त जीवन और विजय प्राप्त होता है, उसी की निरन्तर सेवा करो ॥११॥ इस सूक्त में जल मेघ सूर्य वाणी विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥११॥ यह श्रीमान् परमहंसपरिव्राजकाचार्य परमविद्वान् श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमान् दयानदसरस्वती स्वामीजी के बनाए हुए, संस्कृत और आर्य्यभाषा से सुशोभित, ऋग्वेदभाष्य के चतुर्थमण्डल में पञ्चम अनुवाक, अट्ठावनवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥ इति चतुर्थं मण्डलम् ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरीश्वरविषयमाह ॥

Anvay:

हे भगवन् ! यस्य ते धामन्नन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुष्यपामनीके समिथे विश्वं भुवनमधि श्रितं यस्ते विद्वद्भिराभृतस्तं मधुमन्तमूर्मिमानन्दं वयमश्याम तदुपासनां सततं कुर्य्याम ॥११॥

Word-Meaning: - (धामन्) आधारे (ते) तव (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) जगत् (अधि) उपरि (श्रितम्) स्थितम् (अन्तः) (समुद्रे) अन्तरिक्षे (हृदि) हृदये (अन्तः) मध्ये (आयुषि) जीवननिमित्ते प्राणे (अपाम्) प्राणानाम् (अभीके) सैन्ये (समिथे) सङ्ग्रामे (यः) (आभृतः) समन्ताद् धृतः (तम्) (अश्याम) प्राप्नुयाम (मधुमन्तम्) माधुर्य्यगुणोपेतम् (ते) तव (ऊर्मिम्) रक्षणादिकम् ॥११॥
Connotation: - हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरो जगदभिव्याप्य सर्वं धृत्वा संरक्ष्यान्तर्यामिरूपेण सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति यस्य कृपया विज्ञानं चिरजीवनं विजयश्च प्राप्यते तमेव सततं भजतेति ॥११॥ अत्रोदकमेघसूर्यवाग्विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥११॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषित ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थमण्डले पञ्चमोऽनुवाकोऽष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो! जो जगदीश्वर जगात अभिव्याप्त होऊन सर्वांना धारण करून उत्तम प्रकारे रक्षण करून अन्तर्यायी रूपाने सर्वत्र व्याप्त आहे व ज्याच्या कृपेने विज्ञान, दीर्घायुुष्य व विजय मिळतो त्याचीच निरंतर सेवा करा. ॥ ११ ॥