आ पर्व॑तस्य म॒रुता॒मवां॑सि दे॒वस्य॑ त्रा॒तुर॑व्रि॒ भग॑स्य। पात्पति॒र्जन्या॒दंह॑सो नो मि॒त्रो मि॒त्रिया॑दु॒त न॑ उरुष्येत् ॥५॥
ā parvatasya marutām avāṁsi devasya trātur avri bhagasya | pāt patir janyād aṁhaso no mitro mitriyād uta na uruṣyet ||
आ। पर्व॑तस्य। म॒रुता॑म्। अवां॑सि। दे॒वस्य॑। त्रातुः। अ॒व्रि॒। भग॑स्य। पात्। पतिः॑। जन्या॑त्। अंह॑सः। नः॒। मि॒त्रः। मित्रिया॑त्। उ॒त। नः॒। उ॒रु॒ष्ये॒त् ॥५॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे विद्वन् ! यथाऽहं पर्वतस्य देवस्य भगस्य त्रातुर्मरुतामवांस्यहमाऽऽव्रि तथा पतिर्भवान्नो जन्यादंहसः पान्न उत मित्रो मित्रियादुरुष्येत् ॥५॥
MATA SAVITA JOSHI
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