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अ॒स्माक॒मित्सु शृ॑णुहि॒ त्वमि॑न्द्रा॒स्मभ्यं॑ चि॒त्राँ उप॑ माहि॒ वाजा॑न्। अ॒स्मभ्यं॒ विश्वा॑ इषणः॒ पुर॑न्धीर॒स्माकं॒ सु म॑घवन्बोधि गो॒दाः ॥१०॥

English Transliteration

asmākam it su śṛṇuhi tvam indrāsmabhyaṁ citrām̐ upa māhi vājān | asmabhyaṁ viśvā iṣaṇaḥ puraṁdhīr asmākaṁ su maghavan bodhi godāḥ ||

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Pad Path

अस्माक॑म्। इत्। सु। शृ॒णु॒हि॒। त्वम्। इ॒न्द्र॒। अ॒स्मभ्य॑म्। चि॒त्रान्। उप॑। मा॒हि॒। वाजा॑न्। अ॒स्मभ्य॑म्। विश्वाः॑। इ॒ष॒णः॒। पुर॑म्ऽधीः। अ॒स्माक॑म्। सु। म॒घ॒ऽव॒न्। बो॒धि॒। गो॒ऽदाः ॥१०॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:22» Mantra:10 | Ashtak:3» Adhyay:6» Varga:8» Mantra:5 | Mandal:4» Anuvak:3» Mantra:10


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब उपदेशकविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (मघवन्) बहुत धन से युक्त (इन्द्र) राजन् (त्वम्) आप (अस्माकम्) हम लोगों के वचनों को (सु, शृणुहि) उत्तम प्रकार सुनो और (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (चित्रान्) अद्भुत (वाजान्) अन्न आदिक पदार्थों को (उप, माहि) उपमित कीजिये अर्थात् उत्तमता से मानिये और (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (विश्वाः) सम्पूर्ण (पुरन्धीः) विज्ञानों को धारण करनेवाली बुद्धियों को (इत्) ही (इषणः) प्रेरित करो और (अस्माकम्) हम लोगों के (गोदाः) गौ को देनेवाले होते हुए आप हम लागों को (सु, बोधि) उत्तम प्रकार जानिये ॥१०॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जो लोग हम लोगों के नीति के अनुकूल वचनों को सुनते और हम लोगों को विद्वान् करते हैं, उन लोगों की सेवा हम लोगों को चाहिये कि निरन्तर करें ॥१०॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथोपदेशकविषयमाह ॥

Anvay:

हे मघवन्निन्द्र ! त्वमस्माकं वचांसि सुशृणुह्यस्मभ्यं चित्रान् वाजानुप माह्यस्मभ्यं विश्वाः पुरन्धीरिदिषणोऽस्माकं गोदास्सन्नस्मान् सु बोधि ॥१०॥

Word-Meaning: - (अस्माकम्) (इत्) एव (सु) (शृणुहि) (त्वम्) (इन्द्र) (अस्मभ्यम्) (चित्रान्) अद्भुतान् (उप) (माहि) मन्यस्व (वाजान्) अन्नादीन् (अस्मभ्यम्) (विश्वाः) समग्राः (इषणः) प्रेरय (पुरन्धीः) याः पुरूणि विज्ञानानि दधति ताः प्रज्ञाः (अस्माकम्) (सु) (मघवन्) (बोधि) बुध्यस्व (गोदाः) यो गां धेनुं ददाति सः ॥१०॥
Connotation: - हे मनुष्या ! येऽस्माकं न्यायवचांसि शृणवन्त्यस्मान् विदुषः प्रज्ञान् कुर्वन्ति तेषां सेवाऽस्माभिः सततं कार्य्या ॥१०॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो ! जे लोक आमची न्यायपूर्ण वाणी ऐकून आम्हाला विद्वान करतात त्या लोकांची आम्ही निरंतर सेवा करावी. ॥ १० ॥