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मा ते॒ हरी॒ वृष॑णा वी॒तपृ॑ष्ठा॒ नि री॑रम॒न्यज॑मानासो अ॒न्ये। अ॒त्याया॑हि॒ शश्व॑तो व॒यं तेऽरं॑ सु॒तेभिः॑ कृणवाम॒ सोमैः॑॥

English Transliteration

mā te harī vṛṣaṇā vītapṛṣṭhā ni rīraman yajamānāso anye | atyāyāhi śaśvato vayaṁ te raṁ sutebhiḥ kṛṇavāma somaiḥ ||

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Pad Path

मा। ते॒। हरी॒ इति॑। वृष॑णा। वी॒तऽपृ॑ष्ठा। नि। री॒र॒म॒न्। यज॑मानासः। अ॒न्ये। अ॒ति॒ऽआया॑हि। शश्व॑तः। व॒यम्। ते। अर॑म्। सु॒तेभिः॑। कृ॒ण॒वा॒म॒। सोमैः॑॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:35» Mantra:5 | Ashtak:3» Adhyay:2» Varga:17» Mantra:5 | Mandal:3» Anuvak:3» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

Word-Meaning: - हे प्रतापयुक्त पुरुष ! जो (अन्ये) इससे और (यजमानासः) विद्या की सङ्गति के जाननेवाले (ते) आपके (वीतपृष्ठा) चौड़ी पीठों से युक्त (वृषणा) बलिष्ठ (हरी) वाहनों के ले चलनेवालों को (मा) नहीं (नि, रीरमन्) रमायैं उनको आप (अत्यायाहि) बड़े वेग से प्राप्त हूजिये वा छोड़िये और (शश्वतः) अनादि काल से सिद्धविद्या युक्त पुरुषों को प्राप्त हूजिये जिस (ते) आपके (सुतेभिः) उत्पन्न (सोमैः) ऐश्वर्य्यों से (अरम्) पूरे काम को (वयम्) हम लोग (कृणवाम) करें, वह आप हमारे पूरे काम को करो ॥५॥
Connotation: - जो लोग अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को जाने विना इस विद्या के जाननेवाले जनों का उत्साह नहीं बढ़ाते, उनका उल्लङ्घन कर अनादि काल से सिद्ध विद्या के जाननेवाले विद्वानों के शरण जा के शिल्पविद्या से उत्पन्न कार्यों से पूर्ण मनोरथवाले हम लोग होवैं, इस प्रकार इच्छा करके नित्य प्रयत्न करैं ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे इन्द्र ! येऽन्ये यजमानासस्ते तव वीतपृष्ठा वृषणा हरी मा निरीरमन् ताँस्त्वमत्यायाहि। शश्वत आगच्छ यस्य ते सुतेभिः सोमैररं कामं वयं कृणवाम स त्वमस्माकमलं कामं कुरु ॥५॥

Word-Meaning: - (मा) निषेधे (ते) तव (हरी) यानहारकौ (वृषणा) बलिष्ठौ (वीतपृष्ठा) वीते व्याप्तिशीले पृष्ठे ययोस्तौ (नि) (रीरमन्) रमयेयुः (यजमानासः) विद्यासङ्गतिविदः (अन्ये) एतद्भिन्नाः (अत्यायाहि) अतिवेगेनागच्छोल्लङ्घय वा (शश्वतः) सनातनाः (वयम्) (ते) तव (अरम्) अलम् (सुतेभिः) निष्पन्नैः (कृणवाम) कुर्य्याम (सोमैः) ऐश्वर्य्यैः ॥५॥
Connotation: - येऽग्न्यादिपदार्थविद्यामविदित्वैतद्विद्याविदो जनान्नोत्साहयन्ति तानुल्लङ्घ्यानादिविद्याविदां विदुषां शरणं गत्वा शिल्पविद्यानिष्पन्नैः कार्य्यैः पूर्णकामा वयं भवेमेषित्वा नित्यं प्रयतेरन् ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जे लोक अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या जाणत नाहीत व या विद्येला जाणणाऱ्या लोकांचा उत्साह वाढवीत नाहीत त्यांचा त्याग करून अनादि कालापासून सिद्ध झालेल्या विद्येला जाणणाऱ्या विद्वानाला शरण जाऊन शिल्पविद्येने उत्पन्न झालेल्या कार्याने आमचे मनोरथ पूर्ण व्हावेत अशा प्रकारची इच्छा उत्पन्न करून नित्य प्रयत्न करावेत. ॥ ५ ॥