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शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥

English Transliteration

śunaṁ huvema maghavānam indram asmin bhare nṛtamaṁ vājasātau | śṛṇvantam ugram ūtaye samatsu ghnantaṁ vṛtrāṇi saṁjitaṁ dhanānām ||

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Pad Path

शु॒नम्। हु॒वे॒म॒। म॒घवा॑नम्। इन्द्र॑म्। अ॒स्मिन्। भरे॑। नृऽत॑मम्। वाज॑ऽसातौ। शृ॒ण्वन्त॑म्। उ॒ग्रम्। ऊ॒तये॑। स॒मत्ऽसु॑। घ्नन्त॑म्। वृ॒त्राणि॑। स॒म्ऽजित॑म्। धना॑नाम्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:32» Mantra:17 | Ashtak:3» Adhyay:2» Varga:11» Mantra:7 | Mandal:3» Anuvak:3» Mantra:17


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (समत्सु) संग्रामों में (घ्नन्तम्) नाश करनेवाले (उग्रम्) तेजस्वभावयुक्त (धनानाम्) द्रव्यों के (सञ्जितम्) और उत्तम प्रकार शत्रुओं को जीतनेवाले (वृत्राणि) सुवर्ण आदि धनों को (शृण्वन्तम्) सुनते हुए को (अस्मिन्) इस (वाजसातौ) धन और अन्न आदि के विभाग करनेवाले (भरे) संग्राम में (नृतमम्) उत्तम गुणों से सर्वोत्तम (मघवानम्) परम धनवान और (इन्द्रम्) दुष्ट जनों के नाशकर्त्ता को (हुवेम) पुकारैं और उसके सङ्ग से (शुनम्) सुख को प्राप्त होवें, वैसे इसकी स्तुति करके आप लोग भी इसको प्राप्त हों ॥१७॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि प्रधान पुरुष, राजविद्या में चतुर, योद्धा, न्यायाधीश पुरुषों, प्राङ्विवाकों (वकीलों) और सेवक पुरुषों का सत्कार करके ग्रहण करें, तो उन राजाओं का सदैव विजय यश कीर्त्ति और ऐश्वर्य्य होता है ॥१७॥ इस मन्त्र में सोम, मनुष्य, ईश्वर और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बत्तीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या यथा वयमूतये समत्सु घ्नन्तमुग्रं धनानां सञ्जितं वृत्राणि शृण्वन्तमस्मिन् वाजसातौ भरे नृतमं मघवानमिन्द्रं हुवेम तत्सङ्गेन शुनं प्राप्नुयाम तथैतं स्तुत्वा यूयमप्येतत्प्राप्नुत ॥१७॥

Word-Meaning: - (शुनम्) सुखम्। शुनमिति सुखना०। निघं० ३। ६। (हुवेम) आह्वयेम (मघवानम्) परमधनवन्तम् (इन्द्रम्) दुष्टविदारकम् (अस्मिन्) (भरे) सङ्ग्रामे (नृतमम्) शुभैर्गुणैः सर्वोत्कृष्टम् (वाजसातौ) धनान्नादिविभाजके (शृण्वन्तम्) (उग्रम्) तेजस्वभावम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) हन्तारम् (वृत्राणि) सुवर्णादीनि धनानि। वृत्रमिति धनना०। निघं० २। १०। (सञ्जितम्) सम्यग्जिताः शत्रवो येन तम् (धनानाम्) द्रव्याणाम् ॥१७॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजादयोऽध्यक्षा राजविद्याकुशलान्योद्धॄन् न्यायाधीशान् प्राड्विवाकान्सेवकाँश्च सत्कृत्य सङ्गृह्णीयुस्तर्हि तेषां सदैव विजयः कीर्तिरैश्वर्य्यं च जायत इति ॥१७॥ अत्र सोममनुष्येश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वात्रिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजा वगैरे मुख्य पुरुष, राजविद्येत चतुर, योद्धा, न्यायाधीश, प्राङविवाक (वकील) व सेवकांचा सत्कार करतात व त्यांचा स्वीकार करतात, तेव्हा त्या राजांना सदैव विजय, यश, कीर्ती व ऐश्वर्य मिळते. ॥ १७ ॥