न त्वा॑ गभी॒रः पु॑रुहूत॒ सिन्धु॒र्नाद्र॑यः॒ परि॒ षन्तो॑ वरन्त। इ॒त्था सखि॑भ्य इषि॒तो यदि॒न्द्राऽऽदृ॒ळ्हं चि॒दरु॑जो॒ गव्य॑मू॒र्वम्॥
na tvā gabhīraḥ puruhūta sindhur nādrayaḥ pari ṣanto varanta | itthā sakhibhya iṣito yad indrā dṛḻhaṁ cid arujo gavyam ūrvam ||
न। त्वा॒। ग॒भी॒रः। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। सिन्धुः॑। न। अद्र॑यः। परि॑। सन्तः॑। व॒र॒न्त॒। इ॒त्था। सखि॑ऽभ्यः। इ॒षि॒तः। यत्। इ॒न्द्र॒। आ। दृ॒ळ्हम्। चि॒त्। अरु॑जः। गव्य॑म्। ऊ॒र्वम्॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे पुरुहूतेन्द्र राजन् यं त्वा गभीरः सिन्धुर्न परिवरन्ताऽद्रयः सन्तो न परिवरन्त यद्यश्चिद् दृढं गव्यमूर्वमारुजः स सखिभ्य इषितस्त्वमित्था केनासत्कर्त्तव्यो भवेः ॥१६॥
MATA SAVITA JOSHI
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