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आ म॒न्द्रस्य॑ सनि॒ष्यन्तो॒ वरे॑ण्यं वृणी॒महे॒ अह्र॑यं॒ वाज॑मृ॒ग्मिय॑म्। रा॒तिं भृगू॑णामु॒शिजं॑ क॒विक्र॑तुम॒ग्निं राज॑न्तं दि॒व्येन॑ शो॒चिषा॑॥

English Transliteration

ā mandrasya saniṣyanto vareṇyaṁ vṛṇīmahe ahrayaṁ vājam ṛgmiyam | rātim bhṛgūṇām uśijaṁ kavikratum agniṁ rājantaṁ divyena śociṣā ||

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Pad Path

आ। म॒न्द्रस्य॑। स॒नि॒ष्यन्तः॑। वरे॑ण्यम्। वृ॒णी॒महे॑। अह्र॑यम्। वाज॑म्। ऋ॒ग्मिय॑म्। रा॒तिम्। भृगू॑णाम्। उ॒शिज॑म्। क॒विऽक्र॑तुम्। अ॒ग्निम्। राज॑न्तम्। दि॒व्येन॑। शो॒चिषा॑॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:2» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:17» Mantra:4 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे जिस (मन्द्रस्य) अच्छे प्रकार आनन्द देनेवाले के लाभ के लिये (अह्रयम्) लज्जारहित (वाजम्) वेगवान् (ऋग्मियम्) ऋचाओं से जिसका प्रक्षेप होता अर्थात् जिस में क्रिया होती उस (भृगूणाम्) अविद्या जलानेवालों के (रातिम्) देनेवाले (उशिजम्) मनोहर (दिव्येन) शुद्ध और (शोचिषा) स्वरूप से (राजन्तम्) प्रकाशमान (कविक्रतुम्) कवियों के यज्ञ के समान उपकार जिसका उस (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (अग्निम्) अग्नि को (सनिष्यन्तः) बाँटते हुए हम लोग (आ, वृणीमहे) अच्छे प्रकार स्वीकार करते हैं वैसे तुम भी उसको स्वीकार करो ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो युक्ति से अग्नि को सेवन करें, तो क्या-क्या दिव्य सुख वा वस्तु न सिद्ध करें ? ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या यथा वयं मन्द्रस्य लाभायाह्रयं वाजमृग्मियं भृगूणां रातिमुशिजं दिव्येन शोचिषा राजन्तं कविक्रतुं वरेण्यमग्निं सनिष्यन्तो वयमावृणीमहे तथा यूयमप्येतं वृणुत ॥४॥

Word-Meaning: - (आ) समन्तात् (मन्द्रस्य) आनन्दप्रदस्य (सनिष्यन्तः) संविभागं करिष्यन्तः (वरेण्यम्) वर्तुं स्वीकर्तुमर्हम् (वृणीमहे) स्वीकुर्महे (अह्रयम्) लज्जारहितम् (वाजम्) वेगवन्तम् (ऋग्मियम्) य ऋग्भिर्मीयते प्रमीयते तम् (रातिम्) दातारम् (भृगूणाम्) अविद्यादाहकानाम् (उशिजम्) कमनीयम् (कविक्रतुम्) कवीनां क्रतुर्यज्ञइव प्रज्ञा यस्य तम् (अग्निम्) (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (दिव्येन) शुद्धेन (शोचिषा) पवित्रेण स्वरूपेण ॥४॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि युक्त्या वह्निं सेवेरँस्तर्हि किं किं दिव्यं सुखं वस्तु वा न साधयेयुः ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो युक्तीने अग्नीचा योग्य उपयोग करतो तो काय सुख व वस्तू सिद्ध करू शकणार नाही? ॥ ४ ॥