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प्र ते॑ अग्ने ह॒विष्म॑तीमिय॒र्म्यच्छा॑ सुद्यु॒म्नां रा॒तिनीं॑ घृ॒ताची॑म्। प्र॒द॒क्षि॒णिद्दे॒वता॑तिमुरा॒णः सं रा॒तिभि॒र्वसु॑भिर्य॒ज्ञम॑श्रेत्॥

English Transliteration

pra te agne haviṣmatīm iyarmy acchā sudyumnāṁ rātinīṁ ghṛtācīm | pradakṣiṇid devatātim urāṇaḥ saṁ rātibhir vasubhir yajñam aśret ||

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Pad Path

प्र। ते॒। अ॒ग्ने॒। ह॒विष्म॑तीम्। इ॒य॒र्मि॒। अच्छ॑। सु॒ऽद्यु॒म्नाम्। रा॒तिनी॑म्। घृ॒ताची॑म्। प्र॒ऽद॒क्षि॒णित्। दे॒वता॑तिम्। उ॒रा॒णः। सम्। रा॒तिऽभिः॑। वसु॑ऽभिः। य॒ज्ञम्। अ॒श्रे॒त्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:19» Mantra:2 | Ashtak:3» Adhyay:1» Varga:19» Mantra:2 | Mandal:3» Anuvak:2» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजधारी विद्वान् पुरुष ! मैं (ते) आपकी शिक्षा से जैसे (उराणः) विद्वानों को आदर से श्रेष्ठकर्त्ता कोई (प्रदक्षिणित्) दक्षिण अर्थात् सन्मार्गगन्ता जन (वसुभिः) निवास के कारण (रातिभिः) सुखदान आदि के साथ (हविष्मतीम्) अतिशय हवन सामग्रीयुक्त (सुद्युम्नाम्) श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त (रातिनीम्) दिये हुए हवन के पदार्थों से युक्त (देवतातिम्) उत्तमस्वरूपविशिष्ट (घृताचीम्) जल को प्राप्त होनेवाली रात्रि और (यज्ञम्) शयनावस्था आदि में प्राप्त चित्त के व्यवहारों को (समश्रेत्) प्राप्त करे वैसे इसको (अच्छ) उत्तम रीति से (प्र) (इयर्मि) प्राप्त होता हूँ ॥२॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि दिन में शयन छोड़ सांसारिक व्यवहार की सिद्धि के लिये परिश्रम कर रात्रि के समय स्वस्थतापूर्वक पञ्चदश १५ घटिका पर्यन्त निद्रालु होवें और दिन भर पुरुषार्थ से धन आदि उत्तम पदार्थों को प्राप्त होकर सुपात्र पुरुष तथा सन्मार्ग में दान देवें ॥२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्यैः किं कार्यमित्याह।

Anvay:

हे अग्ने विद्वन्नहं ते तव शिक्षया यथोराणः प्रदक्षिणित् कश्चिज्जनो वसुभी रातिभिः सह हविष्मतीं सुद्युम्नां रातिनीं देवतातिं घृताचीं यज्ञं च समश्रेत् तथैतामच्छ प्रेयर्मि ॥२॥

Word-Meaning: - (प्र) (ते) तव (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (हविष्मतीम्) बहूनि हवींषि विद्यन्ते यस्यान्ताम् (इयर्मि) प्राप्नोमि (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सुद्युम्नाम्) शोभनप्रकाशयुक्तम् (रातिनीम्) रातानि दत्तानि विद्यन्ते यस्यां ताम् (घृताचीम्) या घृतमुदकमञ्चति प्राप्नोति तां रात्रीम्। घृताचीति रात्रिनाम। निघं० १। १। (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणमेति गच्छति सः। अत्रेण् धातोः क्विप् छान्दसो वर्णलोपो वेत्यन्तस्याकारलोपः। (देवतातिम्) दिव्यस्वरूपाम् (उराणः) य उरु बह्वनिति स उराणः। अत्र वर्णव्यत्ययेनोकारस्य स्थानेऽकारः। (सम्) (रातिभिः) सुखदानादिभिः (वसुभिः) वासहेतुभिः सह (यज्ञम्) सुषुप्त्यादिसङ्गतं व्यवहारम् (अश्रेत्) आश्रयेत्। अत्र शपो लुक् ॥२॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्दिवा स्वापं वर्ज्जयित्वा व्यवहारसिद्धये श्रमं कृत्वा रात्रौ सम्यक् पञ्चदशघटिकामात्री निद्रा नेया दिवसे पुरुषार्थेन धनादीनि प्राप्य सुपात्रे सन्मार्गे च दानं देयम् ॥२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी दिवसा शयन करणे सोडून सांसारिक व्यवहाराच्या सिद्धीसाठी परिश्रम करून रात्रीच्या वेळी स्वस्थतेने पञ्चदश (१५) घटिकांपर्यंत निद्रिस्त असावे व दिवसभर पुरुषार्थाने धन इत्यादी उत्तम पदार्थ प्राप्त करून सुपात्र पुरुषांना द्यावे व सन्मार्गात दान करावे. ॥ २ ॥