Go To Mantra

इ॒मं य॒ज्ञं स॑हसाव॒न् त्वं नो॑ देव॒त्रा धे॑हि सुक्रतो॒ ररा॑णः। प्र यं॑सि होतर्बृह॒तीरिषो॒ नोऽग्ने॒ महि॒ द्रवि॑ण॒मा य॑जस्व॥

English Transliteration

imaṁ yajñaṁ sahasāvan tvaṁ no devatrā dhehi sukrato rarāṇaḥ | pra yaṁsi hotar bṛhatīr iṣo no gne mahi draviṇam ā yajasva ||

Mantra Audio
Pad Path

इ॒मम्। य॒ज्ञम्। स॒ह॒सा॒ऽव॒न्। त्वम्। नः॒। दे॒व॒ऽत्रा। धे॒हि॒। सु॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो। ररा॑णः। प्र। यं॒सि॒। हो॒तः॒। बृ॒ह॒तीः। इषः॑। नः॒। अ॒ग्ने॒। महि॑। द्रवि॑णम्। आ। य॒ज॒स्व॒॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:1» Mantra:22 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:16» Mantra:7 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:22


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (सहसावन्) प्रशस्त बल और (सुक्रतो) श्रेष्ठप्रज्ञायुक्त (अग्ने) विद्वान् ! (त्वम्) आप (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) रागद्वेषरहित न्याय दयामय यज्ञ को (देवत्रा) विद्वानों में (धेहि) स्थापन करें। वा हे (होतः) ग्रहण करनेवाले विद्वान् (रराणः) दाता होते हुए आप (बृहतीः) बड़ी-बड़ी (इषः) अन्नादि सामग्रियों को (नः) हम लोगों के लिये (प्र, यंसि) देते है वह (महि) बहुत (द्रविणम्) धन को (आ, यजस्व) दीजिये ॥२२॥
Connotation: - ईश्वर ने विद्वान् को आज्ञा दी है कि जबतक जीवे तबतक तूं विद्या यज्ञ को मनुष्यों में अच्छे प्रकार विस्तारे और पुष्कल अन्न और उससे धनों को सबके अर्थ दे के सुखी होवे ॥२२॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे सहसावन् सुक्रतो अग्ने त्वं न इमं यज्ञं देवत्रा धेहि। हे होतरग्ने रराणः सन् बृहतीरिषो नः प्रयंसि स महि द्रविणमायजस्व ॥२२॥

Word-Meaning: - (इमम्) (यज्ञम्) रागद्वेषरहितं न्यायदयामयम् (सहसावन्) प्रशस्तबलयुक्त (त्वम्) (नः) अस्माकम् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु (धेहि) धर (सुक्रतो) श्रेष्ठप्रज्ञ (रराणः) दाता सन् (प्र यंसि) यच्छसि (होतः) आदातः (बृहतीः) महतीः (इषः) अन्नादीनि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) विद्वन् (महि) (द्रविणम्) धनम् (आ) (यजस्व) देहि ॥२२॥
Connotation: - ईश्वरेण विद्वानाज्ञाप्यते यावज्जीवं तावत्त्वं विद्यायज्ञं मनुष्येषु सुतनुहि तेन पुष्कलान्यन्नधनानि सर्वेभ्यो दत्वा सुखी भव ॥२२॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - ईश्वराने विद्वानाला आज्ञा केलेली आहे की जो पर्यंत जिवंत असशील तोपर्यंत तू माणसांमध्ये विद्यायज्ञाचा चांगल्या प्रकारे विस्तार कर व सर्वांना पुष्कळ अन्न, धन देऊन सुखी हो. ॥ २२ ॥