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अव॑ क्षिप दि॒वो अश्मा॑नमु॒च्चा येन॒ शत्रुं॑ मन्दसा॒नो नि॒जूर्वाः॑। तो॒कस्य॑ सा॒तौ तन॑यस्य॒ भूरे॑र॒स्माँ अ॒र्धं कृ॑णुतादिन्द्र॒ गोना॑म्॥

English Transliteration

ava kṣipa divo aśmānam uccā yena śatrum mandasāno nijūrvāḥ | tokasya sātau tanayasya bhūrer asmām̐ ardhaṁ kṛṇutād indra gonām ||

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Pad Path

अव॑। क्षि॒प॒। दि॒वः। अश्मा॑नम्। उ॒च्चा। येन॑। शत्रु॑म्। म॒न्द॒सा॒नः। नि॒ऽजूर्वाः॑। तो॒कस्य॑। सा॒तौ। तन॑यस्य। भूरेः॑। अ॒स्मान्। अ॒र्धम्। कृ॒णु॒ता॒त्। इ॒न्द्र॒। गोना॑म्॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:30» Mantra:5 | Ashtak:2» Adhyay:7» Varga:12» Mantra:5 | Mandal:2» Anuvak:3» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले सभापति राजन्! (मन्दसानः) प्रशंसा को प्राप्त हुए आप (येन) जिस बल से (भूरेः) बहुत प्रकार के (तोकस्य) छोटे सन्तान (तनयस्य) युवा पुत्र के (सातौ) सम्यक् सेवन में (अस्मान्) हमको (गोनाम्) पृथिवी और गौओं की (अर्द्धम्) संपन्नता समृद्धि को (कृणुतात्) कीजिये उस बल से जैसे सूर्य (उच्चा) ऊँचे स्थित बद्दलों और (दिवः) दिव्य आकाश से प्राप्त (अश्मानम्) मेघ को भूमि पर फेंकता है वैसे (शत्रुम्) शत्रु को (अव,क्षिप) दूर पहुँचा और दुष्टों को (निजूर्वाः) निरन्तर मारिये नष्ट कीजिये ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे अपने सन्तानों के दुःख दूर कर सम्यक् रक्षा कर बढ़ाते हैं, वैसे ही प्रजा के कण्टकों को निवृत्त कर शिष्टों का सम्यक् पालन कर बढ़ावें ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे इन्द्र सभापते राजन् मन्दसानस्त्वं येन भूरेस्तोकस्य तनयस्य सातावस्मान् गोनामर्द्धं कृणुतात्तेन यथा सूर्य्य उच्चा धनानि दिवः प्राप्तमश्मानं भूमौ प्रक्षिपति तथा शत्रुमव क्षिप दुष्टान् निजूर्वाः ॥५॥

Word-Meaning: - (अव) (क्षिप) दूरे गमय (दिवः) दिव्यादाकाशात् (अश्मानम्) योऽश्नुते संहन्ति तं मेघम् (उच्चा) ऊर्ध्वं स्थितानि (येन) बलेन (शत्रुम्) (मन्दसानः) प्रशस्यमानः (निजूर्वाः) नितरां हिंस्याः (तोकस्य) ह्रस्वस्याऽपत्यस्य (सातौ) संसेवने (तनयस्य) यूनः पुत्रस्य (भूरेः) बहुविधस्य (अस्मान्) (अर्द्धम्) द्धिम् (कृणुतात्) कुरु (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (गोनाम्) पृथिवीधेनूनाम् ॥५॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा स्वसन्तानानां दुःखानि दूरीकृत्य संपाल्य वर्द्धयन्ति तथैव प्रजाकण्टकान् निवार्य्य शिष्टान् संपाल्य वर्द्धनीयाः ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुष जसे आपल्या संतानांचे दुःख नाहीसे करून त्यांचे रक्षण करतात व त्यांना वाढवितात तसे त्यांनी प्रजेचे दुःख निवारण करून सभ्य लोकांचे पालन करून वर्धित करावे. ॥ ५ ॥