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सो अ॑प्र॒तीनि॒ मन॑वे पु॒रूणीन्द्रो॑ दाशद्दा॒शुषे॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम्। स॒द्यो यो नृभ्यो॑ अत॒साय्यो॒ भूत्प॑स्पृधा॒नेभ्यः॒ सूर्य॑स्य सा॒तौ॥

English Transliteration

so apratīni manave purūṇīndro dāśad dāśuṣe hanti vṛtram | sadyo yo nṛbhyo atasāyyo bhūt paspṛdhānebhyaḥ sūryasya sātau ||

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Pad Path

सः। अ॒प्र॒तीनि॑। मन॑वे। पु॒रूणि॑। इन्द्रः॑। दा॒श॒त्। दा॒शुषे॑। हन्ति॑। वृ॒त्रम्। स॒द्यः। यः। नृऽभ्यः॑। अ॒त॒साय्यः॑। भूत्। प॒स्पृ॒धा॒नेभ्यः॑। सूर्य॑स्य। सा॒तौ॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:19» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:6» Varga:23» Mantra:4 | Mandal:2» Anuvak:2» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब दाता के विषय में अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - (यः) जो (इन्द्रः) सूर्य के समान देनेवाला जन जैसे सूर्य (वृत्रम्) मेघको (हन्ति) हनता है वैसे शत्रुओं को मारता हुआ (दाशुषे) दूसरे देनेवाले (मनवे) विचारशील मनुष्य के लिये (अप्रतीनि) जिनकी प्रतीति नहीं है उन (पुरूणि) बहुत से धनों को (दाशत्) देवें वा (सूर्यस्य) सूर्य की (सातौ) साति में अर्थात् सूर्यमण्डलकृत विभाग में (अतसाय्यः) परोपकार में निरन्तर वर्त्तमान होता हुआ (पस्पृधानेभ्यः) स्पर्द्धा वा ईप्सा करनेवाले (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (सद्यः) शीघ्र आनन्द देनेवाला (भूत्) होता है (सः) वह सब स्थानों से सत्कार पाता है ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अपरिमित धन को इकट्ठा करते और जगत् के उपकारी सुपात्रों के लिये देते हैं, वे निरन्तर ईर्ष्या वा ईप्सा करने योग्य नहीं हैं ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ दातृविषयमाह।

Anvay:

य इन्द्रो यथा सूर्यो वृत्रं हन्ति तथा शत्रून् हनन् दाशुषे मनवेऽप्रतीनि पुरूणि धनानि दाशत्सूर्यस्य सातावतसाय्यः सन् पस्पृधानेभ्यो नृभ्यः सद्य आनन्दयिता भूत् स सर्वतः सत्कारं प्राप्नुयात् ॥४॥

Word-Meaning: - (सः) (अप्रतीनि) अविद्यमाना प्रतीतिः परिमाणं येषान्तानि (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (पुरूणि) बहूनि (इन्द्रः) सूर्य इव दाता (दाशत्) दद्यात् (दाशुषे) दात्रे (हन्ति) (वृत्रम्) मेघम् (सद्यः) (यः) (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (अतसाय्यः) परोपकारे निरन्तरं वर्त्तमानः (भूत्) भवति। अत्राडभावः (पस्पृधानेभ्यः) स्पर्द्धमानेभ्य ईप्स्यमानेभ्यो वा (सूर्यस्य) (सातौ) संविभागे ॥४॥
Connotation: - येऽपरिमितं धनं संचिन्वन्ति जगदुपकारकेभ्यस्सुपात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति ते सततमस्पर्द्धनीया भवन्ति ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अपरिमित धन एकत्र करतात व जगाच्या उपकारासाठी सुपात्रांना देतात ते स्पर्धा व ईर्षा करण्यायोग्य नसतात. ॥ ४ ॥