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हरी॒ नु कं॒ रथ॒ इन्द्र॑स्य योजमा॒यै सू॒क्तेन॒ वच॑सा॒ नवे॑न। मो षु त्वामत्र॑ ब॒हवो॒ हि विप्रा॒ नि री॑रम॒न्यज॑मानासो अ॒न्ये॥

English Transliteration

harī nu kaṁ ratha indrasya yojam āyai sūktena vacasā navena | mo ṣu tvām atra bahavo hi viprā ni rīraman yajamānāso anye ||

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Pad Path

हरी॒ इति॑। नु। क॒म्। रथे॑। इन्द्र॑स्य। यो॒ज॒म्। आ॒ऽयै। सू॒क्तेन॑। वच॑सा। नवे॑न। मो इति॑। सु। त्वाम्। अत्र॑। ब॒हवः॑। हि। विप्राः॑। नि। री॒र॒म॒न्। यज॑मानासः। अ॒न्ये॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:18» Mantra:3 | Ashtak:2» Adhyay:6» Varga:21» Mantra:3 | Mandal:2» Anuvak:2» Mantra:3


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे विद्वान् ! जो (इन्द्रस्य) बिजली रूप अग्नि सम्बन्धी (रथे) यान में (हरी) धारण आकर्षण और वेग आदि गुणों वाले वायु और अग्नि (नु) शीघ्र (कम्) सुख को सिद्ध करते हैं वा जिन को मैं (अत्र) इसमें (सूक्तेन) सुन्दर प्रतिपादन किये (वचसा) भाषण से (नवेन) नवीन प्रबन्ध से (आयै) गमन करने को (योजम्) युक्त करता हूँ इस रथ में (बहवः) बहुत (विप्राः) मेधावी जन (त्वाम्) आपको (हि) ही (सु,नि,रीरमन्) अच्छे प्रकार रमा रहे हैं (अन्ये) और (यजमानासः) सम्यग् ज्ञाता भी अर्थात् उन मेधावियों से दूसरे विज्ञानवान् जन भी इस उक्त रथ में विपरीत हैं, वे (मो) नहीं रमाते हैं ॥३॥
Connotation: - जो बिजली रथ को नहीं सिद्ध करते हैं, वे सर्वत्र आप न रम सकते हैं और न दूसरों को रमा सकते हैं ॥३॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे विद्वन् य इन्द्रस्य रथे हरी नु कं साध्नुवन्ति यानहमत्र सूक्तेन वचसा नवेनायै योजमत्र बहवो विप्रास्त्वां हि सुनिरीरमन्। अन्ये यजमानासश्चात्र विपरीता मो रीरमन् ॥३॥

Word-Meaning: - (हरी) धारणाकर्षणवेगादिगुणौ वाय्वग्नी (नु) सद्यः (कम्) सुखम् (रथे) याने (इन्द्रस्य) विद्युतः (योजम्) युनज्मि (आयै) एतुं गन्तुम् (सूक्तेन) सुष्ठु प्रतिपादितेन (वचसा) भाषणेन (नवेन) नूतनेन (मो) (सु) (त्वाम्) (अत्र) (बहवः) (हि) (विप्राः) मेधाविनः (नि) नितराम् (रीरमन्) रमयन्ति (यजमानासः) सम्यग् ज्ञातारः (अन्ये) ॥३॥
Connotation: - ये विद्युद्रथं न साध्नुवन्ति ते सर्वत्र रन्तुं रमयितुं च न शक्नुवन्ति ॥३॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - भावार्थ -जे विद्युत रथ तयार करू शकत नाहीत ते स्वतः सर्वत्र संतुष्ट राहू शकत नाहीत किंवा दुसऱ्यालाही संतुष्ट करू शकत नाहीत. ॥ ३ ॥