Go To Mantra

प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म् । घृ॒तं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिर॑: ॥

English Transliteration

pra te mahe vidathe śaṁsiṣaṁ harī pra te vanve vanuṣo haryatam madam | ghṛtaṁ na yo haribhiś cāru secata ā tvā viśantu harivarpasaṁ giraḥ ||

Pad Path

प्र । ते॒ । म॒हे । वि॒दथे॑ श॒म्सि॒ष॒म् । हरी॒ इति॑ । प्र । ते॒ । व॒न्वे॒ । व॒नुषः॑ । ह॒र्य॒तम् । मद॑म् । घृ॒तम् । न । यः । हरि॑ऽभिः । चारु॑ । सेच॑त । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । हरि॑ऽवर्पसम् । गिरः॑ ॥ १०.९६.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:96» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:5» Varga:5» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:8» Mantra:1


Reads times

BRAHMAMUNI

इस सूक्त में हरि नाम से बहुत वस्तुओं की प्रशंसा है, परमात्मा के गुण उनके कृपा प्रसाद प्रशंसनीय हैं तथा उपासक उसके आनन्द को प्राप्त करते हैं, वह जगत् में व्यापक है, वेदज्ञान का उपदेश देता है, इत्यादि विषयों का वर्णन है।

Word-Meaning: - (महे) महान्-महत्त्वपूर्ण (विदथे) वेदनीय-अनुभवनीय स्वरूप में अध्यात्म यज्ञ में (ते) हे परमात्मन् ! तेरे (हरी) अज्ञानदोष के अपहारक ज्ञान गुण आहारक कृपा और प्रसाद को (प्र शंसिषम्) प्रशंसित करता हूँ (ते वनुषः) तुझ सम्भजनीय के (हर्यतम्) कमनीय (मदम्) आनन्द को (प्र वन्वे) प्रकृष्ट रूप से माँगता हूँ (यः हरिभिः) जो मनुष्यों द्वारा उपासित परमात्मा है (घृतं न) जल के समान (चारु) चरणीय स्वानन्द रस को (सेचते) सींचता है (त्वा) तुझ (हरिवर्पसम्) मनोहर रूपवाले को (गिरः) स्तुतिवाणियाँ (आ विशन्तु) आविष्ट होवें, प्राप्त होवें ॥१॥
Connotation: - परमात्मा के महत्त्वपूर्ण अज्ञानदोषनाशक और ज्ञानगुणप्रसारक कृपाप्रसाद प्रशंसनीय हैं, जिनके द्वारा उसका कमनीय आनन्द याचनीय है, जिसे वह सींच देता है, जबकि स्तुतियाँ उसे प्राप्त होती हैं ॥१॥
Reads times

BRAHMAMUNI

अस्मिन् सूक्ते हरिनामतो बहवः पदार्थाः प्रस्तुताः, परमात्मा स्तोतव्यः गुणौ त्वस्य कृपाप्रसादौ सुंशसनीयावित्येवं तथा उपासकास्तस्यानन्दं भजन्ते जगति व्यापकः सः, वेदज्ञानं च प्रयच्छतीत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

Word-Meaning: - (महे विदथे ते हरी प्र शंसिषम्) महति महत्त्वपूर्णे वेदने-“विदथे वेदने” [निरु० १।७] वेदनीयेऽनुभवनीयस्वरूपेऽध्यात्मयज्ञे वा-तव हरी-अज्ञानदोषापहारकज्ञानगुणाहारकौ कृपाप्रसादौ प्रशंसामि (ते वनुषः-हर्यतं मदं प्र वन्वे) सम्भजनीयस्य तव कमनीयम् “हर्यति कान्तिकर्मा” [निघ० २।६] कमनीयं हर्षमानन्दं प्रकृष्टं याचे “वनु याचने [तुदादि०] (यः-हरिभिः) मनुष्यैरुपासितः परमात्मा (घृतं न चारु सेचते) जलमिव चरणीयं स्वानन्दरसं सिञ्चति, (त्वा हरिवर्पसं गिरः-आ विशन्तु) त्वां मनोहररूपं यस्य तथाभूतं स्तुतिवाचः-आविशन्तु प्राप्नुवन्तु प्राप्ता भवन्तु ॥१॥