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आ॒प्रु॒षा॒यन्मधु॑न ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः । बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥

English Transliteration

āpruṣāyan madhuna ṛtasya yonim avakṣipann arka ulkām iva dyoḥ | bṛhaspatir uddharann aśmano gā bhūmyā udneva vi tvacam bibheda ||

Pad Path

आ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् । अ॒र्कः । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्योः । बृह॒स्पतिः॑ । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑नः । गाः । भूम्याः॑ । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥ १०.६८.४

Rigveda » Mandal:10» Sukta:68» Mantra:4 | Ashtak:8» Adhyay:2» Varga:17» Mantra:4 | Mandal:10» Anuvak:5» Mantra:4


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (बृहस्पतिः) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी तथा वेद का स्वामी या महान् राष्ट्र का पालक (ऋतस्य योनिम्) ज्ञान के पात्रभूत मनुष्य को (मधुना) मधुर ज्ञान से (आप्रुषायन्) समन्तरूप से पूर्ण करता है (अर्कः) अर्चनीय परमात्मा (द्योः-उल्काम्-अवक्षिपन्) जैसे विद्युत् विद्युद्धारा को नीचे फेंकती है, ऐसे (अश्मन्-गा उद्धरन्) ज्ञान से व्याप्त वेद की वाणियों को उद्घाटित करता है (भूम्याः-उद्गा-इव त्वचं बिभेद) जैसे जलधारा जलप्रपात से भूमि की त्वचा को-आवरण को कोई कृषक छिन्न-भिन्न करता है-तोड़ता है, अथवा जल के लिए भूमि की त्वचा-उपरिस्तर को कोई महान् शिल्पी उत्पाटित करता है-तोड़ता है ॥४॥
Connotation: - वेदज्ञान का स्वामी तथा राष्ट्र का स्वामी ज्ञान के पात्र जन को वेदज्ञान देकर उसके अन्तःकरण को विकसित करता है, जैसे विद्युत् अपनी विद्युत् धारा से मेघजल को बरसाकर भूमि को विकसित करती है, जैसे कृषक भूमि पर खेती में जल बहाकर विकसित करता है, शिल्पी जैसे कुआँ खोदकर जल निकालकर भूमि को विकसित करता है ॥४॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (बृहस्पतिः) महतो ब्रह्माण्डस्य स्वामी तथा वेदस्वामी “प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्” [यजु० ३४।५७] महतो राष्ट्रस्य पालकः (ऋतस्य योनिम्) ज्ञानस्य गृहं ग्राहकं पात्रभूतं जनं (मधुना) मधुरेण ज्ञानेन “मधु विज्ञानम्” [यजु० १९।९ दयानन्दः] (आप्रुषायन्) पूरयति “प्रुष स्नेहसेवनपूरणेषु” [क्र्यादिः], ‘व्यत्ययेन शायच् प्रत्ययश्छान्दसः’ (अर्कः) अर्चनीयः परमात्मा (द्योः-उल्काम्-अवक्षिपन्) यथा विद्युत्-विद्युद्धाराः-अवक्षिपन्-क्षिपति ‘व्यत्ययेन प्रथमास्थाने पञ्चमी’ ऋ० १।१५०।१८ दयानन्दः] “उल्काः-विद्युत्पाताः” [यजु० १३।१० दयानन्दः] (अश्मन्-गाः-उद्धरन्) ज्ञानव्याप्तस्य वेदस्य वाचो मन्त्रवाचः-उद्घाटयति (भूम्याः-उद्गा-इव त्वचं बिभेद) यथा जलधारया जलप्रतापेन भूमेस्त्वचमावरणं भिनत्ति कश्चित् कृषकः, यद्वा खलूदकार्थं भूमेस्त्वचमुपरितलं महान् शिल्पी-उत्पाटयति-भिनत्ति ॥४॥