Word-Meaning: - (सः-द्विबन्धुः) वह परमात्मा जीवात्मा को दोनों अर्थात् संसार और मोक्ष-में बाँधनेवाला-सम्बन्ध करानेवाला है (वैतरणः) दोनों अर्थात् संसार और मोक्ष-भोगसुख और मोक्षानन्द-के वितरण-पृथक् पृथक् देने में समर्थ है (यष्टा) सृष्टियज्ञ का याजक (सबर्धुम्-अस्वं धेनुं दुहध्यै) सब कामनाओं की दोहनेवाली अप्रसूता मुक्तिरूपा अथवा वेदवाणी को अथवा सब लौकिक भोगों को दोहनेवाली अनुत्पन्न प्रकृतिरूप गौ को दोहने में समर्थ है (यत्) जबकि (वरूथैः-ज्येष्ठेभिः-उक्थैः) परमात्मा के वरणीय श्रेष्ठ प्रशंसनीय स्तुति प्रार्थना उपासनाओं से (मित्रावरुणा-अर्यमणं संवृञ्जे) प्राणापान और मुख्य प्राण को भली प्रकार से त्यागता है, उनके बन्धन से मुक्त होता है अथवा उनको सङ्गत होता है प्रकृति के भोग और अपवर्ग के लिए, क्योंकि भोगापवर्ग के लिए दृश्य है ॥१७॥
Connotation: - परमात्मा सृष्टि का उत्पादक है। वह जीवात्मा का सम्बन्ध सृष्टि और मुक्ति दोनों से कराता है। मुक्ति अनुत्पन्न है, उसका आनन्द स्थायी है। सृष्टि भोगप्रद है। सृष्टि के भोग और मुक्ति के आनन्द वितरण में समर्थ है। जीवात्मा को परमात्मा प्राणसाधन देता है। जब वह वैराग्यवान् होकर प्राणों को त्यागता है, तो मुक्ति में हो जाता है और प्राणों के सहारे से ही अनुत्पन्न प्रकृति के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध होने पर भोग प्राप्त करता है। भोगों से ग्लानि होने पर अपवर्ग-मुक्ति में जाता है ॥१७॥