Word-Meaning: - (वरुण) हे वरणीय तथा वरनेवाले परमात्मन् ! (अहं होत्रात्-बिभ्यत्-आयम्) मैं आत्मा, जो अपने में सबको ग्रहण कर लेता है, उस मृत्यु में भय करता हुआ तेरे ध्यान को प्राप्त हुआ हूँ-तेरी शरण में आया हूँ (न-इत्-इव) न ही (देवाः-मा-अत्र युनजन्) इन्द्रियाँ मुझे अपने-अपने विषय में जोड़ें-खींचें (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) उस इस मुझ आत्मा की बहुतेरी शक्तियाँ छिपी हुई हैं (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः-न चिकेत) इस अभिप्राय को लक्ष्य कर मैं आत्मा नहीं अपने को जना पाता हूँ। तथा (वरुण) हे वरने योग्य वरनेवाले जल के स्वामी ! (अहम्) मैं विद्युत् अग्नि “यह आलङ्कारिक ढंग से वर्णन है” (होत्रात्-बिभ्यत्) प्रयोक्तव्य यन्त्र से भय करता हुआ (आयन्) जलों में प्राप्त हुआ हूँ (न-इत्-एव देवाः-मा-अत्र युनजन्) न ही वैज्ञानिक जन यहाँ यन्त्र में मुझे जोड़ें (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) उस इस मुझ विद्युदग्नि की बहुतेरी तरङ्गें छिपी हुई हैं (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः-न चिकेत) इस अभिप्राय को लक्षित कर मैं अपने को नहीं जना सकती ॥४॥
Connotation: - जीवात्मा को स्वभावतः मृत्यु से भय होता है। वह भय परमात्मा की शरण और उसके ध्यान बिना दूर नहीं हो सकता। उधर इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में आत्मा को खींचती हैं। आत्मा की शक्तियाँ और भी छिपी हुई हैं, जिनका विकास परमात्मा की शरण लेने पर होता है, जिनसे ब्रह्मानन्द का लाभ लेता है। एवं विद्युत् की उत्पत्ति जलों से होती है, चाहे वे मेघ-जल हों या पृथिवी के जल हों। जलों का अधिपति-शक्तिकेन्द्र वरुण नाम से कहा जाता है, जो जलों के सूक्ष्म कणों को ठोस रूप देता है। वैज्ञानिक लोग जल को ताड़ित करके विद्युत् बनाकर उसका यन्त्र में प्रयोग करते हैं। विद्युत् की तरङ्गों में बहुत शक्ति है, उसका सदुपयोग करना चाहिए ॥४॥