Word-Meaning: - (कवयः) मेधावी आप्त ऋषिजन (सप्त मर्यादाः-ततक्षुः) सात मर्यादाएँ सीमाएँ जीवन की बनाते हैं, उनका लङ्घन न करें-उन पर न पहुँचें, जो कि निरुक्त में प्रदर्शित हैं−चोरी-डाका, गुरुपत्नी से सम्भोग, ब्रह्महत्या, गर्भपात, सुरापान, पापकर्म की पुनरावृत्ति, पाप करके झूठ बोलना-पाप को छिपाना, (तासाम्-एकाम्-इत्) उन इनमें से एक को भी (अभि-यात्) पहुँचे-अपने में आरोपित करे, तो वह (अंहुरः) पापी होता है। (ह) इनसे पृथक् पुण्यात्मा (आयोः-स्कम्भः) ज्योति का स्कम्भ-ज्योतिष्पुञ्ज महान् अग्नि परमात्मा है, उस (उपमस्य) समीप वर्तमान के (नीडे) घर में-शरण में-मोक्ष में (पथां विसर्गे) जहाँ जीवनयात्रा के मार्गों का विसर्जन-त्याग होता है, ऐसे प्राप्तव्य स्थान में (धरुणेषु तस्थौ) प्रतिष्ठाओं-ऊँची स्थितियों में स्थिर हो जाता है ॥६॥
Connotation: - ऋषि जन जीवनयात्रा की सात मर्यादाएँ-सीमाएँ प्रतिबन्धरेखाएँ=चोरी आदि बनाते हैं, जिनकी ओर जाना नहीं चाहिये, उनमें से किसी एक पर भी आरूढ हो जाने पर मनुष्य पापी बन जाता है। उनसे बचा रहनेवाला ऋषिकल्प होकर, जीवनयात्रा के मार्गों का अन्त जहाँ हो जाता है, ऐसी प्रतिष्ठाओं-ऊँची स्थितियों में रमण करता हुआ परम प्रकाशमान के आश्रय-मोक्ष में विराजमान हो जाता है ॥६॥