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आ या॒त्विन्द्र॒: स्वप॑ति॒र्मदा॑य॒ यो धर्म॑णा तूतुजा॒नस्तुवि॑ष्मान् । प्र॒त्व॒क्षा॒णो अति॒ विश्वा॒ सहां॑स्यपा॒रेण॑ मह॒ता वृष्ण्ये॑न ॥

English Transliteration

ā yātv indraḥ svapatir madāya yo dharmaṇā tūtujānas tuviṣmān | pratvakṣāṇo ati viśvā sahāṁsy apāreṇa mahatā vṛṣṇyena ||

Pad Path

आ । या॒तु॒ । इन्द्रः॑ । स्वऽप॑तिः । मदा॑य । यः । धर्म॑णा । तू॒तु॒जा॒नः । तुवि॑ष्मान् । प्र॒ऽत्व॒क्षा॒णः । अति॑ । विश्वा॑ । सहां॑सि । अ॒पा॒रेण॑ । म॒ह॒ता । वृष्ण्ये॑न ॥ १०.४४.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:44» Mantra:1 | Ashtak:7» Adhyay:8» Varga:26» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:4» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में ‘इन्द्र’ शब्द से परमेश्वर और राजा वर्णित हैं। परमात्मा अपने उपासकों के कामादि शत्रुओं को नष्ट करता है, मोक्ष में ग्रहण करता है, संसार में रक्षा करता है, सुख देता है तथा राजा अपनी प्रजाओं की बाधाओं को नष्ट करता है, सुख देता है, रक्षा करता है इत्यादि का प्रमुखतया वर्णन है।

Word-Meaning: - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा वा राजा (स्वपतिः) अपने आधीन जगत् का या अपने आधीन राष्ट्र का स्वामी (मदाय-आयातु) उपासकों को आनन्द प्रदान करने के लिए साक्षात् होवे, प्रजाजनों को आनन्द प्रदान करने के लिए राजासन को प्राप्त करे (यः-धर्मणा) धारकगुण से या न्याय गुण से (तूतुजानः) उपासकों को या प्रजाजनों को स्वीकार करता हुआ (तुविष्मान्) प्रशस्त वर्धक शक्तिवाला, तथा (विश्वा सहांसि) उपासकों के कामादि सब शत्रुबलों को या प्रजा के सब शत्रुबलों को (अपारेण महता वृष्ण्येन) किसी से भी पार न पा सकनेवाले नाशन बल से (प्रत्वक्षाणः) नाश करता हुआ साक्षात् हो या राजपद पर प्राप्त हो ॥१॥
Connotation: - परमात्मा अपने उपासकों को स्वीकार करता है और आनन्द देने के लिए उन्हें प्राप्त होता है तथा उनके कामादि शत्रुओं को नष्ट करता है। एवं राजा प्रजाजनों को अपनावे, उन्हें सुखी बनावे और शत्रुओं तथा दुःखों को सदा दूर किया करे ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अत्र सूक्ते ‘इन्द्र’ शब्देन परमेश्वरो राजा च गृह्येते। परमेश्वरः स्वोपासकानां कामादीन् नाशयति, मोक्षे गृह्णाति संसारे च रक्षति सुखं प्रयच्छति। एवं राजा स्वप्रजानां बाधकान् नाशयति ताभ्यः स्वराष्ट्रे सुखं प्रयच्छति रक्षति च ता इति प्राधान्येन वर्णनमस्ति।

Word-Meaning: - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा राजा वा (स्वपतिः) स्वभूतस्य जगतो यद्वा स्वभूतस्य राष्ट्रस्य स्वामी (मदाय-आयातु) उपासकानाम् आनन्दप्रदानाय साक्षाद् भवतु, प्रजाजनानामानन्ददानाय राजपदे प्राप्नोतु (यः-धर्मणा) यः खलु धारकगुणेन न्यायगुणेन वा (तूतुजानः) उपासकानाददानः, प्रजाजनानाददानः स्वीकुर्वन् “तुज हिंसा-बलादाननिकेतनेषु” [चुरादि०] “ततः कानच् प्रत्ययश्छान्दसः” (तुविष्मान्) प्रशस्तवृद्धिशक्तिमान् “तु गतिवृद्धिहिंसासु” [अदादि०] “ततो बाहुलकादौणादिक इसि प्रत्ययः, स च कित्” [ऋ० १।५५।१ दयानन्दः] ‘प्रशंसार्थे मतुप्०’ तथा (विश्वा सहांसि) सर्वाणि-उपासकानां कामादिशत्रुबलानि “सहः-बलनाम” [निघ० २।९] (अपारेण महता वृष्ण्येन) केनापि न पारयितुं योग्येन महता नाशनबलेन (प्रत्वक्षाणः) नाशयन् साक्षाद् भवतु, राजपदं प्राप्नोतु वा ॥१॥