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कृ॒ष्णां यदेनी॑म॒भि वर्प॑सा॒ भूज्ज॒नय॒न्योषां॑ बृह॒तः पि॒तुर्जाम् । ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं सूर्य॑स्य स्तभा॒यन्दि॒वो वसु॑भिरर॒तिर्वि भा॑ति ॥

English Transliteration

kṛṣṇāṁ yad enīm abhi varpasā bhūj janayan yoṣām bṛhataḥ pitur jām | ūrdhvam bhānuṁ sūryasya stabhāyan divo vasubhir aratir vi bhāti ||

Pad Path

कृ॒ष्णाम् । यत् । एनी॑म् । अ॒भि । वर्प॑सा । भूत् । ज॒नय॑न् । योषा॑म् । बृ॒ह॒तः । पि॒तुः । जाम् । ऊ॒र्ध्वम् । भा॒नुम् । सूर्य॑स्य । स्त॒भा॒यन् । दि॒वः । वसु॑ऽभिः । अ॒र॒तिः । वि । भा॒ति॒ ॥ १०.३.२

Rigveda » Mandal:10» Sukta:3» Mantra:2 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:31» Mantra:2 | Mandal:10» Anuvak:1» Mantra:2


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (बृहतः-पितुः-जाम्) महान् द्युलोक की कन्या उषा को (योषां जनयन्) सहयोगिनी बनाता हुआ सूर्य (यत्-कृष्णाम्-एनीम्) जब प्रवाहशीला नदी जैसी कृष्ण वर्णवाली रात्रि को (वर्पसा-अभिभूत्) अपने तेज से अभिभूत करता है, दबा लेता है, तब पृथिवी पर दिन होता है, परन्तु जब (सूर्यस्य भानुम्-ऊर्ध्वं स्तभायन्) सूर्य अपनी ज्योति-प्रकाश को पृथिवी से ऊपर आकाश में रोके हुए भी-रोक लेने पर भी (अरतिः- दिवः-वसुभिः-विभाति) सर्वत्र प्राप्त सूर्य द्युलोक के वासी चन्द्र ग्रह तारों के साथ प्रतिफलित हो प्रकाश देता है ॥२॥
Connotation: - आकाश में फैलनेवाली उषा को अपनाकर सूर्य अपने तेज से रात्रि को दबा लेता है, तो पृथिवी पर दिन प्रकट होता है और जब सूर्य अपनी ज्योति को पृथिवी से परे आकाश में रोक लेता है तो रात्रि हो जाती है तब भी सूर्य आकाश के ग्रह तारों में प्रतिफलित होता है और उन्हें प्रकाशित करता है। दिन में पृथिवी को प्रकाशित करता हुआ दीखता है, रात्रि में ग्रह तथा नक्षत्रों को प्रकाशित करता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् महान् पिता परमात्मा की वेदविद्यारूपी ज्ञानज्योति को अपनाकर सदा उसे संसार में फैलाते हैं, साक्षात् सभाओं में, असाक्षात् घर परिवारों में-दिन में विद्यालयों में रात्रि को जनसाधारण में ॥२॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (बृहतः-पितुः-जाम्) महतो द्युलोकस्य जायमानामपत्यभूतां कन्यामुषसम् “द्यौर्मे पिता” [ऋ० १।१६४।३३] “पिता द्यौः” [तै० २।७।१५।३] “जा-अपत्यनाम” [निघं० २।२] (योषां जनयन्) सहयोगिनीं भार्यां सम्पादयन् (यत्-कृष्णाम्-एनीं वर्पसा-अभिभूत्) यदा कृष्णवर्णां रात्रिम् “कृष्णवर्णा रात्रिः” [निरु० २।२१] गमनशीलां नदीमिव वर्त्तमानाम् “एनी-नदीनाम” [निघ० १।१३] स्वतेजोरूपेण स सूर्योऽभिभवदति, तदा दिनं भवतीत्यर्थः, परन्तु (सूर्यस्य भानुम्-ऊर्ध्वं स्तभायन्) यदा स सूर्यः ‘प्रथमार्थे षष्ठी व्यत्ययेन’ स्वाभीष्टं “अजस्रेण भानुना दीद्यतमित्यजस्रेणार्चिषा दीप्यमानमित्याह” [श० ६।४।१।२] पृथिवीत उपरि स्तब्धं करोति तदा पृथिव्यां रात्रिर्भवति पुनरपि (अरतिः) सर्वत्र गमनकर्त्ता सूर्यः (दिवः-वसुभिः विभाति) द्युलोकस्य वासिभिर्नक्षत्रैर्वैपरीत्ये प्रकाशते हि “नक्षत्राणि चैते वसवः” [श० ११।६।३।६] ॥२॥