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इ॒नो रा॑जन्नर॒तिः समि॑द्धो॒ रौद्रो॒ दक्षा॑य सुषु॒माँ अ॑दर्शि । चि॒किद्वि भा॑ति भा॒सा बृ॑ह॒तासि॑क्नीमेति॒ रुश॑तीम॒पाज॑न् ॥

English Transliteration

ino rājann aratiḥ samiddho raudro dakṣāya suṣumām̐ adarśi | cikid vi bhāti bhāsā bṛhatāsiknīm eti ruśatīm apājan ||

Pad Path

इ॒नः । रा॒ज॒न् । अ॒र॒तिः । सम्ऽइ॑द्धः । रौद्रः॑ । दक्षा॑य । सु॒सु॒ऽमान् । अ॒द॒र्शि॒ । चि॒कित् । वि । भा॒ति॒ । बृ॒ह॒ता । असि॑क्नीम् । ए॒ति॒ । रुश॑तीम् । अ॒प॒ऽअज॑न् ॥ १०.३.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:3» Mantra:1 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:31» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:1» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (राजन्) अपने प्रकाश से प्रकाशमान सूर्य (इनः) तीनों लोकों का स्वामी जिस कारण (अरतिः) एक स्थान पर ही रमणकर्ता प्रभावकारी नहीं किन्तु तीनों लोकों में प्रभावकारी है, तिस से (रौद्रः) रुद्राणी तेजस्विनी विद्युत् शक्तियों से सम्पत्र (सुषुमान्) सुगमता से प्राणियों को और ओषधियों को उत्पत्तिशक्ति प्रेरणशक्ति देनेवाला (दक्षाय) संसार को बल देने के लिये (अदर्शि) दृष्ट  होता है, साक्षात् देखा जाता है-सम्यक् दिखलाई पड़ता है,  (चिकित्-बृहता भासा विभाति) चेताने-जगानेवाला वह सूर्य जिस कारण महती दीप्ति द्वारा विशेष भासित होता है-प्रकाशित होता है-चमकता है, इसलिये (रुशतीम्-अपाजन्) अपनी शुभ्रदीप्ति को फेंकता हुआ (असिक्नीम्-एति) रात्रि को प्राप्त होता है, रात्रि के अत्यन्त में प्रातर्वेला लाता है, तब सब को चेताता है-जगा देता है, रात्रि से-अन्धेरे से मुक्त करा देता है ॥१॥
Connotation: - महान् अग्नि सूर्य तीनों लोकों पर प्रकाशमान हुआ उनका स्वामी सा बना हुआ है। वह एक ही लोक पर रमण नहीं करता, अपितु सब लोकों पर प्रभावकारी है और वैद्युत शक्तियों से सम्पन्न वह संसार को बल देता है ! प्राणियों और ओषधियों को उत्पक्ति शक्ति और उभरने की प्रेरणा देनेवाला साक्षात् दृष्ट होता है-ज्योति से चमकता है। वही सबको चेताने-जगानेवाला है। अपनी ज्योति को फेंकता हुआ रात्रि का अन्त करता है-प्रातर्वेला बनाता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् सूर्यसमान प्रतापी राजा अपने विद्या से या अधिकार से तीनों लोकों का उपयोग करता है। ज्ञान धर्म का प्रकाश फैलाकर अविद्या रात्रि को एवं पापभावना को मिटाता है ॥१॥
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BRAHMAMUNI

पूर्ववत्।

Word-Meaning: - (राजन्) स्वप्रकाशेन प्रकाशमानः बृहन्नग्निः सूर्यः, व्यत्ययेन सोर्लुक् (इनः) लोकत्रयस्य स्वामी यतः (अरतिः) एकस्मिन् स्थाने ह्येव प्रभावकारी न, किन्तु लोकत्रये प्रभावकारी, तस्मादेव (समिद्धः) प्रकाशमानः सन् (रौद्रः) रुद्राण्या तेजस्विन्या वैद्युतशक्त्या सम्पन्नः “वैद्युतीनाम्-रुद्राणीनाम्” [तै० आ० १।१७।१] “रौद्रेण शत्रुरोदयित्रीणामिदं तेन” [यजु० ५।३४ दयानन्दः] (सुषुमान्) सर्वेषां प्राणिनामोषधीनां च सुगमतया-उत्पादयित्री प्रेरयित्री या शक्तिः सा सुषुस्तद्वान् सुषुमान् (दक्षाय) सर्वसंसारार्थं बलप्रदानाय (अदर्शि) साक्षात्-दृष्टो भवति (चिकित्-बृहता भासा विभाति) स सूर्यः सर्वांश्चेतयति-जागरयति महता तेजसा यतो विभाति-विशेषेण दीप्यते, तस्मात् (रुशतीम्-अपाजन्) स्वकीयदीप्तिं निजस्वरूपतः प्रक्षिपन् सन् (असिक्नीम्-एति) रात्रिं प्राप्नोति रात्रेरवसाने प्रातर्वेलामुत्पादयति “असिक्न्यशुक्लासिता, सितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम्” [निरु० ९।२५।] ॥१॥